Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९८ आत्मधर्म : ३९ :
णवि होदि अप्पमत्तौ ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव।।
६।।
नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक ज्ञायकभाव छे,
ए रीत ‘शुद्ध’ कथाय, ने जे ज्ञात ते तो ते ज छे. ६.
जे अप्रमत्त के प्रमत्त नथी, जे शुभाशुभभावोरूपे कदी परिणमतो नथी,
स्पष्ट ज्ञानज्योतिपणे जे सदाय प्रगट प्रकाशमान छे एवो ज्ञायक एक भाव छे ते
शुद्धआत्मा छे. द्रव्यस्वभावथी जोतां आत्मा सदाय आवो ज्ञायकभाव ज छे.
ज्ञायकभाव अप्रमत्त के प्रमत्त नथी एम कहीने मोह–जोगकृत बधा गुणस्थाननी
अशुद्धता काढी नांखी.
गुणस्थाननो निषेध करवामां खरेखर तो मोह अने जोगरूप विभावनो
निषेध छे; ते वखते जे निर्मळपर्याय छे ते तो आत्मामां अभेद थयेली छे; ते
पर्यायना भेद उपर पण लक्ष रहेतुं नथी, एकला अभेद ज्ञायकभाव उपर लक्ष
एकाग्र थाय छे, त्यारे ज्ञायकभावनी अभेदउपासना थाय छे, एटले ज्ञायकआत्मा
पोते शुभाशुभ कषायचक्रथी जुदा एवा ज्ञायकभावपणे ज परिणमे छे. आवा
आत्माने ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.
पर्यायमां अनादिथी आत्माने शुभाशुभभावो अने कर्मपुद्गलनो संबंध छे,
पण द्रव्यस्वभावथी अनुभव करतां ज्ञायकभाव शुभाशुभ कषायचक्र वगरनो
एकरूप स्पष्ट ज्ञानज्योतिरूपे ज अनुभवमां आवे छे. आवा द्रव्य उपर लक्ष जतां
आत्मा पोते शुद्धपर्यायरूपे परिणम्यो, त्यां ते पर्याये ज्ञायकभावनी उपासना करी;
आवी उपासना करीने ज्ञायकस्वभावमां द्रष्टि करी त्यां तेने ‘शुद्ध’ कह्यो.
परद्रव्योथी भिन्न, शुभाशुभभावोथी भिन्न एवी अंतर्दष्टिथी आत्मा पोते
शुद्धतारूपे परिणम्यो, ते शुद्धपर्याये शुद्धआत्माने सेव्यो; आवी आत्मानी उपासनावडे
शुद्धआत्मा जणाय छे. शुद्ध द्रव्यनी सन्मुख थईने आवी उपासना करनारी पर्याय, पोते
पुण्य–पापरूप थती नथी; ने शुद्ध–पर्यायना भेद उपर पण तेनुं लक्ष नथी. शुद्धपर्याय
थई छे खरी, पण ते पर्याय उपर पण पर्यायनुं लक्ष नथी, ते पर्याय अंतर्मुख थईने
अभेदपणे