Atmadharma magazine - Ank 339
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९८ आत्मधर्म : ४७ :
देनार छे; अने आवी निजभावना माटे आ नियमसारशास्त्रनी रचना छे.
दुःखथी भरपूर आ घोर संसारवनमां चैतन्यनी वीतरागदशारूप जैनशासन ज
एक शरण छे. दर्शनमोहवाळा जीवोने भवना जंगलमांथी बहार नीकळवानो मार्ग
सुझतो नथी. जैनदर्शन ज चैतन्यतत्त्वनुं साचुं स्वरूप बतावीने भवथी छूटवानो मार्ग
बतावे छे. आवो सुंदर मार्ग आचार्यदेवे आ नियमसारमां पोतानी निजभावना माटे
तेम ज जगतना जीवोना हितने माटे प्रसिद्ध कर्यो छे.
जुओ, आ सूत्रकार कुंदकुंदाचार्यदेवनी अद्भुत दशा! जेमणे सर्वज्ञ परमात्मानो
उपदेश जाण्यो हतो, सेंकडो परम अध्यात्मशास्त्रोना रहस्यमां जेओ कुशळ हता, तेमणे
पोतानी निजभावना–अर्थे आ नियमसार–परमागमनी रचना करी छे. अंतरनी
चैतन्यपरिणतिमां शुद्धरत्नत्रयरूप नियमसारनी रचना थती जाय छे ने तेना निमित्ते
आ नियमसारनामना द्रव्यश्रुतनी रचना थाय छे. नियम एटले शुद्धरत्नत्रयरूप
मोक्षमार्ग केम प्रगटे तेनी रीत आ नियमसारमां बतावी छे. अहो, आ नियमसार तो
‘परमेश्वरशास्त्र’ छे, परमेश्वर भगवाने कहेलुं भागवत छे. आमां कहेला परमतत्त्वनी
भावना करतां कोई परम अपूर्व आनंद थाय छे. आ भागवत शास्त्रमां कहेला
परमआनंदमय परमात्म–तत्त्वने जेणे जाण्युं ते महापुरूषोए समस्त अध्यात्मशास्त्रना
रहस्यने जाणी लीधुं, परमआनंदरूप वीतरागसुखनो स्वाद तेमणे चाखी लीधो. तेओ
अंतर्मुखपणे पोताना कारण–परमात्मतत्त्वने ज भावता थका, अनुभवता थका, शुद्ध
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप थईने शाश्वतसुखने सदाकाळ भोगवे छे.–आवुं आ
भागवतशास्त्रनुं उत्तम फळ छे.
[आठमी वखतनां प्रवचनो पूर्ण: पोष सुद एकम]
* * * * *
स्वभावना आंगणे
जेणे अरिहंत जेवा पोताना आत्माने मन वडे जाणी
लीधो ते जीव स्वभावना आंगणे आव्यो छे. परंतु आंगणे
आव्या पछी हवे स्वभावनो अनुभव करवामां अनंत अपूर्व
पुरुषार्थ छे. आ चैतन्यभगवानना आंगणे आव्या पछी–
एटले के मन वडे आत्मस्वभावने लक्षमां लीधा पछी
चैतन्य–स्वभावनी अंदर ढळीने अनुभव करवा माटे अनंत
पुरुषार्थ करे ते ज चैतन्यमां ढळीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे.