Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : माह : २४९८
तरस्या शिष्यने श्रीगुरु पीवडावे छे –
परम आनंदनां अमृत
होय तेनी आ वात छे. आखा संसारमां–पापमां के पुण्यमां, नरकमां के
स्वर्गमां जेने दुःख लागतुं होय, चैतन्यनी समाधि–अनुभूति सिवाय बीजे
क््यांय, कोई परभावमां के कोई संयोगमां किंचित् सुख नथी, सुख तो
चैतन्यनी वीतरागी अनुभूतिमां ज छे––एम जेना अंतरमां भास्युं होय,
एवा जीवनी आ जिज्ञासा छे के हे प्रभो! हुं मारा परमात्मतत्त्वने जाणु––
एवो उपदेश मने आपो.
जेम पाणीनी बहार पडेलुं माछलुं पाणी वगर तरफडे, तेने चेन क््यांय
न पडे, तेम हे प्रभो! चैतन्यना निर्विकल्पसुखना दरियाथी बहार परभावमां
सर्वत्र हुं दुःखथी तरफडी रह्यो छुं, चार गतिमां क्यांय मने चेन नथी,
स्वर्गमांय चेन नथी; परमात्मतत्त्वमां जे सुख भर्युं छे तेनो मने अनुभव केम
थाय–ए ज मारे समजवुं छे. प्रभो! संसारमां बीजी कोई वांछा नथी, मारा
चैतन्य सुख सिवाय बीजुं कांई हुं चाहतो नथी. आवो अंतरनो पोकार जेने
जाग्यो ते शिष्यने श्रीगुरु परमात्मतत्त्व समजावे छे, ने कोरो घडो जेम
पाणीना टीपांने चूसी ल्ये तेम, ते शिष्य तरत समजी जाय छे.
शिष्यने पोताने एम भास्युं छे के अरे, अनंतकाळ में दुःखनो भोगवटो
कर्यो, मारा आत्माना सुखना उपायने में क्षणमात्र न सेव्यो; सुखना उपायना
सेवन वगर अनंतकाळ दुःखना दरियामां ज डुबी रह्यो, हवे आ दुःखना
दरियानो किनारो आवे ने हुं सुख पामुं एनो उपाय शुं छे? ते जाणीने तेनुं ज
सेवन करवानी धगश छे. एक ज धगश छे, एक ज धून छे, एक ज जिज्ञासा
छे. जे परमात्मस्वभावना लाभ वगर, एटले भान वगर, हुं संसारमां भम्यो
अने जेनी प्राप्तिथी मारुं भ्रमण मटे एवो परमात्मस्वभाव मने बतावो.––आ
रीते जिज्ञासु शिष्य आत्मानुं स्वरूप सांभळवा मांगे छे.