क््यांय, कोई परभावमां के कोई संयोगमां किंचित् सुख नथी, सुख तो
चैतन्यनी वीतरागी अनुभूतिमां ज छे––एम जेना अंतरमां भास्युं होय,
एवा जीवनी आ जिज्ञासा छे के हे प्रभो! हुं मारा परमात्मतत्त्वने जाणु––
एवो उपदेश मने आपो.
सर्वत्र हुं दुःखथी तरफडी रह्यो छुं, चार गतिमां क्यांय मने चेन नथी,
स्वर्गमांय चेन नथी; परमात्मतत्त्वमां जे सुख भर्युं छे तेनो मने अनुभव केम
थाय–ए ज मारे समजवुं छे. प्रभो! संसारमां बीजी कोई वांछा नथी, मारा
चैतन्य सुख सिवाय बीजुं कांई हुं चाहतो नथी. आवो अंतरनो पोकार जेने
जाग्यो ते शिष्यने श्रीगुरु परमात्मतत्त्व समजावे छे, ने कोरो घडो जेम
पाणीना टीपांने चूसी ल्ये तेम, ते शिष्य तरत समजी जाय छे.
सेवन वगर अनंतकाळ दुःखना दरियामां ज डुबी रह्यो, हवे आ दुःखना
दरियानो किनारो आवे ने हुं सुख पामुं एनो उपाय शुं छे? ते जाणीने तेनुं ज
सेवन करवानी धगश छे. एक ज धगश छे, एक ज धून छे, एक ज जिज्ञासा
छे. जे परमात्मस्वभावना लाभ वगर, एटले भान वगर, हुं संसारमां भम्यो
अने जेनी प्राप्तिथी मारुं भ्रमण मटे एवो परमात्मस्वभाव मने बतावो.––आ
रीते जिज्ञासु शिष्य आत्मानुं स्वरूप सांभळवा मांगे छे.