: १८ : आत्मधर्म : माह : २४९८
थाकेला जीवने माटे भगवानना समवसरणमां अने संतोनी छायामां
चैतन्यना वीतरागी परमआनंदरसनां परब मंडाया छे, त्यां परमआनंदना
तरस्या जीवो जिज्ञासाथी आवीने शुद्धात्माना अनुभवरूप अमृतपान करे छे
ने परम तृप्त थाय छे...तेनो आत्मा ठरे छे. अरे, क्यां नवमी ग्रैवेयकथी मांडीने
नरक–निगोदनां दुःखोनो दावानळ! ने क्यां आ चैतन्यना अनुभवरूप सुखना
वेदननी शांति!
अरे, चैतन्यना परम आनंदना अनुभव वगर जेने बधुंय दुःखरूप
लागे छे, अने त्यांथी भयभीत थईने जे चैतन्यसुखने झंखे छे, एवो जीव
शुद्धात्माना अनुभव तरफ जाय छे. जेम लोको मोटा नागथी भयभीत थईने
भागे छे तेम धर्मात्माओ संसारनी चारेगतिना भवथी भयभीत थईने
त्यांथी भाग्या ने भव वगरना चैतन्यनुं शरण लीधुं. जगतमां निर्भयस्थान
आ एक चैतन्य ज छे; ते ज चारगतिनां दुःखोथी बचावनार छे.
चारगति दुःखथी डरे तो तज सौ परभाव;
शुद्धातम–चिंतन करी शिवसुखनो ले ल्हाव.
साचुं सुख
जीव सुख चाहे छे...पण ते रागमां ने संयोगमां सुखने शोधे छे.
भाई, सुख तो रागमां होय?–के वीतरागमां?
वीतरागता ते ज सुख छे, तेने जीवे कदी जाण्युं नथी.
जेणे रागमां अने पुण्यमां सुख मान्युं तेने मोक्षनी श्रद्धा नथी.
मोक्ष तो अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे, रागमय नथी.
अरिहंत अने सिद्धभगवंतोना सुखने धर्मी जीवो ज जाणे छे.
स्व–परना भेदज्ञानपूर्वक वीतराग–विज्ञानवडे ज ते सुख अनुभवाय छे.