Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : माह : २४९८
बंधाय तेनाथी देवलोकना वैभवना ढगला आपोआप आवी पडशे.–माटे एनुं
आश्चर्य छोड. अरे, एमां शुं हतुं? ए तो विकारनुं फळ छे; अंदर चैतन्यनी अनुभूतिना
फळनी जे अपूर्व शांति–तेनी तो गंध पण ते वैभवमां नथी.
केवळज्ञान–केवळसुख वगेरे अनंत वैभव जेमांथी प्रगटे एवी खाण आत्मामां
भरी छे; आत्मामां एवो कारणस्वभाव छे के जे केवळज्ञानादि अनंत कार्यनुं एक साथे
कारण थाय. केवळज्ञानादि चतुष्टय, अने एवा अनंता गुणोनी निर्मळदशारूप अनंत
कार्य, तेनुं कारण थवानी ताकात वर्तमानमां तारामां वर्ते ज छे. तेने ओळखीने, तेनुं
सेवन करतां तने सम्यक्त्वादि अनंत वैभव प्रगट थशे, अने बहारना वैभवनी द्रष्टि
छूटी जशे. आवा मारा अचिंत्य चैतन्यतत्त्वथी ऊंचुं खरेखर बीजुं कांई नथी, एम
समजीने हे जीव! तुं तीक्ष्णबुद्धिवडे तारा शुद्धतत्त्वने एकने ज भज. ‘एक भज...सर्वं
तज.’
(नियमसार कळश २८–२९)
“आवा आत्माने तमे देखो”
भाई, एकवार शुद्धनयवडे अंतरमां घा मारीने तुं
आनंदस्वरूप आत्माने दुःखमांथी जुदो पाडी दे. शुद्धनय एटले
रागथी छूटुं पडेलुं ज्ञान अंदर अभेद थईने पोताना आत्माने
शुद्धपणे अनुभवे छे. आत्माने अनुभवनारो शुद्धनय
आत्माथी जुदो नथी, आत्मा साथे ते अभेद छे, तेथी ते
आत्मा ज छे. आत्मा जेवो छे तेवो अनुभूतिमां प्रगट्यो,
तेथी अनुभूति ते आत्मा ज छे.
अनुभूतिमां आत्मा प्रकाशे छे, अनुभूतिमां राग
प्रकाशतो नथी. धर्मीने अनुभूतिमां जे आत्मा आव्यो ते केवो
छे? के अबद्ध–अस्पृष्ट छे; तेमां कर्मनुं बंधन नथी, पुद्गलनो
संबंध नथी. आवी अबद्ध–अस्पृष्ट पर्यायरूपे परिणमेलो
आत्मा ते पोते शुद्धनय छे.–‘आ शुद्धनय, अने आ तेनो
विषय’ एवा भेद अनुभूतिमां नथी. शुद्धनयपणे आत्मा ज
प्रकाशे छे.