Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : माह : २४९८
‘एकत्व’ ना अनुभवमां निर्विकल्प शांति छे; त्रण भेदमां शांति नथी. अहा,
चैतन्यना पाताळमां ऊंडे लई जईने आत्मा बताव्यो छे. भाई, तारे खरेखरो आत्मा
प्राप्त करवो होय (अनुभवमां लेवो होय) तो अंदर चैतन्यना पाताळमां ऊंडे जा.
विकल्प तो चैतन्यसमुद्रथी बहार छे, ते विकल्पमां ऊभो रहीने शोधीश तो आत्मा नहीं
मळे. प्रभो! तने रागवाळो ने भववाळो अशुद्ध कहेवो ते तो कलंक छे, शरम छे, तेमां
तारी मोटपनी साची ओळखाण नथी; अरे, आत्मा ज्ञानवाळो–एवा गुणभेदना
विकल्पवडे पण आत्मानी शोभा नथी; आत्मानी शोभा, आत्मानी खरी मोटपनी
ओळखाण तो अनंतगुण–पर्यायोथी अभेद एवा एकाकार ज्ञायकतत्त्वना अनुभवमां
छे. आवो अनुभव करनार धर्मी जीव वीतरागरसना प्याला पीए छे. आवो अनुभव
करे तेने सम्यग्दर्शन कहेवाय, ते ज जैन कहेवाय. अहीं तो कहे छे के आवी अनुभूतिमां
ज्ञानीने अनंतारसथी भरपूर एवो जे चैतन्यरस घोळाय छे, तेमां ज्ञान–दर्शन–
चारित्रना भेद पण विद्यमान नथी.
अहो, संतोए तो एकला वीतरागी चैतन्यरसने घोळ्‌यो छे. ए चैतन्यरसमां
कोई विकल्पने अवकाश नथी. प्रभु! आवो आत्मा तुं पोते छो. तारा आवा
चैतन्यपाताळमां ऊंडो ऊतरतां तेमां कोई विकल्प नथी, एकलो निर्विकल्प शांत
चैतन्यरस ज अनुभवाय छे. ए चैतन्यरसमां अनंतागुणनी निर्मळपर्यायनो रस
समाई गयो छे. आवो अनुभव कर्यो त्यारे ‘हुं आत्मा आवो छुं’ एम खबर पडी,
ज्ञायकभगवान पोताना शुद्धस्वरूपे प्रगट थयो.
आवा आत्मानो अनुभव करवा माटे जे ‘नीकटवर्ती’ थयो छे, एक तो गुरु
उपरनी श्रद्धापूर्वक आ समयसार सांभळवा माटे गुरु पासे नीकट आव्यो छे ने
शुद्धआत्मानी वात सांभळवा ऊभो छे–ए रीते ‘नीकटवर्ती’ छे; अने बीजुं–अंदरमां
भावथी पण ते शिष्य शुद्ध आत्माना अनुभवनी नजीक आव्यो छे माटे ‘नीकटवर्ती’ छे.
तेने अभेदनो हजी अनुभव नथी एटले भेदपूर्वक अभेदनो उपदेश द्ये छे पण ते शिष्य
पोते भेदना विकल्पमां अटकवा मांगतो नथी, ते तो शुद्धात्माना ज अनुभवनो कामी
छे, बीजी कोई वातमां अटकतो नथी; अने श्रीगुरु पण भेदथी पार ज्ञायकतत्त्व बतावे
छे; तेथी शिष्य भेदना विकल्पनो पण निषेध करीने, ते एक अभेद ज्ञायकतत्त्वने
अनुभवमां लई ल्ये छे. आवा अनुभवमां ज्ञायकआत्माना अनंतधर्मोनो रस समाई
जाय छे; तेमां गुणभेद नथी, एक शुद्धज्ञायकपणे ज आत्मा प्रकाशे छे.