कहीने आत्माने न ओळखाव्यो; पण ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहीने रागादिथी रहित
शुद्धआत्मा ओळखाव्यो.
छे तेओ तो अभेद ज्ञायकवस्तुने अनुभवे छे, तेमां तेओ कोई भेद उपजावता नथी;
पण निकटवर्ती शिष्यने समजाववा जेओ उपदेश आपे छे ते आचार्य, पोते पण
सविकल्पदशामां आव्या छे ने शिष्यने समजाववा धर्मीना केटलाक धर्मोनो भेद पाडीने
कथन करे छे के ज्ञानी–आत्मा दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप छे. आत्माने दर्शन–ज्ञान–
चारित्रस्वरूप कह्यो तेमां राग अने शरीरादि नीकळी गया, विकल्पो जुदा पडी गया.
ज्ञानादि धर्मोनी एकता रागादि साथे नथी पण आत्मा साथे ज तेनी एकता छे. आ
रीते धर्म द्वारा पण रागादिथी भिन्न एवो आत्मा ज लक्षमां आवे छे. भेद कह्यो ते तो
मात्र व्यवहारथी ज छे; परमार्थ तो अनंतधर्मने पी गयेली एक अभेद आत्मवस्तु छे,
तेनो अनुभव करनारने कोई भेदविकल्प नथी. आवो अनुभव करनार आत्माने ज
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे.
अभेद थईने परिणमे त्यारे तेमां अभेद द्रव्य आखुं अनुभवमां आवे छे. आ
अनुभवमां अनंत गुण–पर्यायो समाई गया छे, एक अभेद वस्तुपणे ज आत्मा
प्रसिद्ध थाय छे...गुण–पर्यायना भेदवगरनो आखो आत्मा, अनंतगुणना एकमेक
मळेला स्वादपणे अनुभवमां आवे छे...एटले तेमां निर्विकल्प शांतरसनुं ज वेदन छे;
विकल्पोनी आकुळता तेमां नथी.
आस्वाद किंचित् एकमेक मळी गयेलो छे. अनंतागुणना स्वादनो आनंदरस अनुभवमां
छे. आवो सम्यग्द्रष्टिनो अनुभव छे. आत्मानुं स्वरूप ज आवुं छे. अहा, एकरूप
आत्मानी अनुभूतिमां अनंतगुणनो रस आवे छे. अनुभवनो आवो महा चैतन्यरस,