Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 30 of 49

background image
: माह : २४९८ आत्मधर्म : २७ :
धर्मीनुं स्वरूप समजाववा माटे तेना ज्ञानादि धर्मोनो भेद पाडीने कह्युं, तेमां पण
एवा धर्मो लीधा के जेनावडे धर्मीआत्मानुं परथी भिन्नस्वरूप ओळखाय. रागवाळो
कहीने आत्माने न ओळखाव्यो; पण ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहीने रागादिथी रहित
शुद्धआत्मा ओळखाव्यो.
गुण–पर्यायोरूप पोताना अनंतधर्मोथी आत्माने जुदापणुं नथी. एक
परमार्थवस्तुमां तेना गुण–पर्यायोनो भेद नथी, जुदाई नथी. अनुभवमां जेओ एकाग्र
छे तेओ तो अभेद ज्ञायकवस्तुने अनुभवे छे, तेमां तेओ कोई भेद उपजावता नथी;
पण निकटवर्ती शिष्यने समजाववा जेओ उपदेश आपे छे ते आचार्य, पोते पण
सविकल्पदशामां आव्या छे ने शिष्यने समजाववा धर्मीना केटलाक धर्मोनो भेद पाडीने
कथन करे छे के ज्ञानी–आत्मा दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप छे. आत्माने दर्शन–ज्ञान–
चारित्रस्वरूप कह्यो तेमां राग अने शरीरादि नीकळी गया, विकल्पो जुदा पडी गया.
ज्ञानादि धर्मोनी एकता रागादि साथे नथी पण आत्मा साथे ज तेनी एकता छे. आ
रीते धर्म द्वारा पण रागादिथी भिन्न एवो आत्मा ज लक्षमां आवे छे. भेद कह्यो ते तो
मात्र व्यवहारथी ज छे; परमार्थ तो अनंतधर्मने पी गयेली एक अभेद आत्मवस्तु छे,
तेनो अनुभव करनारने कोई भेदविकल्प नथी. आवो अनुभव करनार आत्माने ज
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे.
अरे, विकल्पमां आत्मतत्त्व केम आवे? अनंत गुणस्वरूप आखी चैतन्यवस्तु
भेदना विकल्पथी केम पमाय? ज्यारे ज्ञान सर्वे विकल्पोथी छूटुं पडीने चैतन्यस्वभावमां
अभेद थईने परिणमे त्यारे तेमां अभेद द्रव्य आखुं अनुभवमां आवे छे. आ
अनुभवमां अनंत गुण–पर्यायो समाई गया छे, एक अभेद वस्तुपणे ज आत्मा
प्रसिद्ध थाय छे...गुण–पर्यायना भेदवगरनो आखो आत्मा, अनंतगुणना एकमेक
मळेला स्वादपणे अनुभवमां आवे छे...एटले तेमां निर्विकल्प शांतरसनुं ज वेदन छे;
विकल्पोनी आकुळता तेमां नथी.
पर्याय ज्यां स्वभावसन्मुख वळीने एकाग्र थाय छे त्यां एकरूपता ज
अनुभवमां आवे छे. ते अनुभवमां अनंतगुणोनो स्वाद एक साथे छे; तेथी ते गुणोनो
आस्वाद किंचित् एकमेक मळी गयेलो छे. अनंतागुणना स्वादनो आनंदरस अनुभवमां
छे. आवो सम्यग्द्रष्टिनो अनुभव छे. आत्मानुं स्वरूप ज आवुं छे. अहा, एकरूप
आत्मानी अनुभूतिमां अनंतगुणनो रस आवे छे. अनुभवनो आवो महा चैतन्यरस,