वीतरागी संतोना अनुभवनुं हार्द कहो, सम्यग्दर्शननी
रीत कहो, के पहेलांमां पहेलो धर्म कहो–तेनुं अलौकिक
स्वरूप आ गाथामां आचार्यदेवे प्रसिद्ध कर्युं छे. निश्चय–
व्यवहारना बधा खुलासा आमां आवी जाय छे. आ
गाथाना भावो समजतां बधा शास्त्रोनुं हार्द समजाई जाय
छे...अपूर्व सम्यग्दर्शन थाय छे...ने आनंदरसनी धारा
आत्मामां वहे छे.
ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूप आत्मा छे––एवा गुणगुणीभेदरूप व्यवहार द्वारा
अवलंबन छोडी दीधुं–तेने माटे ‘व्यवहार ते परमार्थनो प्रदिपादक’ कह्यो. पण
व्यवहारना भेदना विकल्पमां ज जे अटकी जाय, ने भेदना विकल्पने उल्लंघीने अभेदमां
न पहोंचे तेने समजावे छे के हे भाई! व्यवहार तो बधोय अभूतार्थ छे. व्यवहार पोते
कांई परमार्थ नथी.––व्यवहारने परमार्थनो प्रतिपादक त्यारे ज कहेवाय के ज्यारे ते
व्यवहारनुं लक्ष छोडीने अभेदरूप परमार्थने लक्षमां लई ल्ये. परमार्थ कहो के भूतार्थ
कहो,–ते एक शुद्ध ज्ञायकभाव छे, एवा भूतार्थस्वभावने शुद्धनयवडे अनुभववो ते ज
सम्यग्दर्शन छे.––आवा सम्यग्दर्शननुं प्रतिपादन करनार आ ११मुं सूत्र ते जैन–