Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : माह : २४९८
त्यां सामान्यना लक्षे पर्यायनुं लक्ष छूटी गयुं, माटे त्यां पर्याय नथी एम कह्युं
छे. त्यां एकला परम स्वभावमां पर्याय एकाग्र थईने अभेदने अनुभवे छे. आवा
अनुभवमां द्रव्यना परमस्वभावनो आत्मलाभ छे.
त्रिकाळी अखंड स्वभावनो अनुभव ते भूतार्थनो आश्रय छे, ने ते अनुभवमां
पर्यायना कोई भेदनुं लक्ष रहेतुं नथी; त्यां पर्याय छे पण ते गौण थई जाय छे एटले
तेनुं लक्ष छूटी जाय छे ने एक भूतार्थ सर्वोपरी परमतत्त्व ज अनुभूतिमां प्रकाशमान
रहे छे.
सम्यग्दर्शनमां सत्य वस्तुनो स्वीकार थाय छे. ते सत्य एटले शुं? तेनुं आ
वर्णन छे. शुद्धनयना विषयरूप एक अभेद स्वभाव छे ते भूतार्थ छे; ने व्यवहारनयना
विषयरूप पर्यायभेद वगेरे अभूतार्थ छे. जुओ, आमां कांई वेदांत जेवो पर्यायनो
अभाव नथी; पर्यायरूप धर्म तो सत्मां छे, पण शुद्धनयथी एक अभेदना मुख्य
अनुभवमां पर्यायनो भेद रहेतो नथी माटे ते पर्यायने गौण करीने तेने असत् कहेल
छे. साधक दशानी आ वात छे. जेणे स्वसन्मुख थईने वस्तुनी शुद्धताने साधवी छे–
एवो जीव शुं करे छे? के अंतर्मुख थईने भूतार्थस्वभावनो आश्रय करे छे; अने
पर्यायनो (शुद्ध के अशुद्ध बधा भेदनो) आश्रय छोडे छे. एक शुद्ध वस्तुना अनुभवमां
पर्यायनी अनेकतानुं लक्ष छूटी जाय छे. पर्याय तो द्रव्यना आश्रयमां घूसी गई, त्यां ते
पर्यायने पर्यायनुं लक्ष न रह्युं, एकाकार ज्ञायकवस्तुना अनुभवमां ज पर्याय मग्न थई,
परम आनंदनो ज अनुभव रह्यो.––तेथी आवा आत्माने साचो आत्मा गण्यो, तेने
भूतार्थ कह्यो, तेने सत्यार्थ कह्यो; तेना आश्रयने सम्यग्दर्शन कह्युं––आवो अनुभव ते
जैनधर्म छे. आ गाथामां तेनुं स्वरूप बताव्युं छे तेथी आ गाथा जैनधर्मनो प्राण छे.
उत्तम तीर्थ कयुं? सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे परिणमेलो
आत्मा ते उत्तम भावतीर्थ छे; संसारने
ते पोते तरी रह्यो छे, ने बीजाने
तरवामां निमित्त छे. तथा एवा
भावतीर्थना विहारथी पावन थयेला
तीर्थो, तेमां उत्तम तीर्थ सम्मेदशिखर छे.