: माह : २४९८ आत्मधर्म : ३५ :
ज्ञानीनी चैतन्यपरिणति विकल्पोने स्पर्शती नथी
(नियमसार पानुं ३०३ कारतक वद ९)
• विकल्पोनी उत्पत्ति रागनी भूमिकामांथी थाय छे,–चैतन्यभूमिकामां तो
निर्विकल्पआनंदनी उत्पत्ति छे, तेमां विकल्पनी उत्पत्ति नथी.
अंतरना भगवान साथे भेटो चेतना–अनुभूतिवडे थाय छे.
• विकल्प छे ते चैतन्यरस नथी. चैतन्यनो रस, चैतन्यनो भाव तो एकला समरस
स्वभावरूप छे, परमशांत अनुभूतिरूप छे;
• ज्यां आवा चैतन्यभावपणे आत्मा जाग्यो ने ‘हुं चिन्मात्र शांतिनो सागर छुं’
एवी अनुभूतिरूप थयो त्यां तत्क्षणे ज विकल्पोनी मोटी ईन्द्रजाळ अलोप थई
जाय छे.
• अरे, विकल्पो तो भवभय करनारा छे, ते कांई शांति देनारा नथी. भले बहारनो
विकल्प हो के अंदरनो विकल्प हो––तेमां भय छे, अशांति छे.
• चैतन्यनी अनुभूति तो परम आनंददाता छे, तेमां कोई भय नथी.
• चैतन्यनी अनुभूति ते ज आत्मानुं अभ्यंतर अंग छे, विकल्पो तो बाह्य छे, ते
कांई चैतन्यनुं अंग नथी. अहो, आवी अंतरंग अनुभूतिवडे आत्मा पोतानी
अंदर कोई अद्भुत परम तत्त्वने देखे छे, जेने देखतां महा आनंद थाय एवुं
अंतरंग तत्त्व आत्मा पोते छे. जेना उपर ज्ञाननुं लक्ष जतां ज विकल्पो दूर थई
जाय छे.––आवुं अंगत तत्त्व आ चैतन्यस्वरूप आत्मा छे.
• विकल्प विकल्पमां वर्ते छे, ज्ञान ज्ञानमां वर्ते छे, विकल्पमां ज्ञान वर्ततुं नथी,
ज्ञानमां विकल्प नथी. आम बंनेनी भिन्नता जाणनार ज्ञानी, ज्ञानमां ज वर्ते छे,
ज्ञानीनी ज्ञानपरिणति आत्मामां ज तन्मयरूप वर्ते छे, विकल्पभावे नथी वर्ततुं.
आवी अद्भुत ज्ञानपरिणति पोतामां आनंदना सागर चैतन्य भगवानने झीले
छे, विकल्पने ते नथी झीलती, तेने ते पोतामां प्रवेशवा देती नथी. अहा, परिणति
चैतन्यतत्त्वमां प्रवेशी गईने विकल्पोथी छूटी गई, ते हवे विकल्पोने स्पर्शती नथी.
आवी परिणति थाय त्यारे ज्ञानी ओळखाय.