Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : माह : २४९८
वाह रे वाह साधकदशा
शुद्धतत्त्वना सतत अनुभवमां, अमने बीजी कोई चिंता नथी
(माह सुद बीज नियमसार कळश ३२–३३–३४)
वाह रे वाह! जुओ तो खरा आ साधकनी दशा!
आनंदस्वरूपना साधकने वळी बीजी चिन्ताना बोजा
केवा? आनंदना अवसरमां शोक केवा? अमे तो बीजा
बधायनी चिंता छोडीने, अमारा शुद्धतत्त्वने एकने ज
आनंदपूर्वक अनुभवीए छीए. आवो अनुभव करीने
संतो पोते न्याल थया छे, अने जगतने पण तेनी रीत
बतावीने न्याल कर्युं छे.
चैतन्यना सुखमां मग्न जीव पोताना निजभावथी भिन्न एवा सर्वे
बाह्यपदार्थोमां सुखनी कल्पना छोडे छे. पुण्यजनित अनुकूळताना गंज हो के पापजनित
प्रतिकूळताना गंज हो–बंनेथी पार, मारो आत्मा ज चैतन्यसुखनो समुद्र छे–एम
धर्मीजीव स्वानुभूतिथी पोतामां मग्न थाय छे, त्यां बहारनी चिंता शी?
धर्मी कहे छे के अहो! विभाव वगरनो अमारो शुद्ध स्वभाव परम आनंदथी
भरेलो अमारा अंतरमां विद्यमान बिराजी रह्यो छे, अमे सतत एने अनुभवी रह्या
छीए, पछी बीजी कोई चिता अमने नथी.
बापु! तारे शांति जोईती होय तो तारा आवा तत्त्वने तुं अनुभवमां ले, तारा
अंतरमां ज ते बिराजी रह्युं छे. जेमां सर्वे रागद्वेष–अशांतिरूप विभावो असत् छे एवो
आत्मानो सहज स्वभाव, तेनो अनुभव करो! अमे तेनो सतत अनुभव करी रह्या
छीए ने तमे पण सुखी थवा माटे तेने ज अनुभवो. आवा तत्त्वना अनुभव सिवाय
बीजा कोई प्रकारे आ जगतमां क््यांय पण किंचित् सुख नथी–नथी. अरे, जे