Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : माह : २४९८
समाधिमरण – प्रसंगे आराधनामां शूरवीर मुनिवरो
हे जीव! वीरपुरुषोए जे आराधनाने आराधी, तुं पण
उत्साहथी तेने आराध.
समाधिमरणमां स्थित मुनिराजने आचार्य उपदेश आपे छे के हे
क्षपकमुनि! रत्नत्रयमां अने उत्तम क्षमादि धर्ममां सावधानपणे तमारा चित्तने
लीन करो. केमके अत्यारे आराधनाना उत्सवनो महान अवसर छे. आचार्यना
आवा उल्लास वचनोथी क्षपकमुनिनुं चित्त प्रसन्न अने उज्वळ थाय छे. जेम
घणा काळनो तरस्यो मनुष्य अमृतजळना पानथी तृप्त थाय तेम आचार्यना
उपदेशरूपी अमृतना पान वडे मुनिनुं चित्त आहलादित थाय छे; अने आचार्य
प्रत्ये विनयथी नम्रीभूत थईने कहे छे के हे भगवान! आपे आपेलुं सम्यग्ज्ञान
में शिरोधार्य कर्युं छे; हवे जेम आपनी आज्ञा होय तेम हुं प्रवर्तन करीश.
समाधिमरणमां हुं जरापण शिथिल नहीं थाउं. आपना तथा संघना प्रसादथी
मारो आत्मा जे रीते आ संसारसमुद्रथी पार थाय, अने आप गुरुजनोनी
उजवल कीर्ति जगतमां विख्यात थाय, तथा मारा हित माटे वैयावृत्यमां उद्यत
सकल संघनो परिश्रम सफळ थाय––ए रीते हुं उजवळ निर्दोष आराधनाने ग्रहण
करीश.
––आ प्रमाणे ते मुनिए समाधिमरण माटे आराधनामां पोताना
परिणामनो उत्साह अने परम शूरवीरता गुरु पासे प्रगट कर्यां.
अहो, गणधर वगेरे वीरपुरुषोए जे आराधनाने आदरी अने विषय–
कषायोमां डुबेला कायर पुरुषो मनथी जेनुं चिंतन करवा पण समर्थ नथी, ते
आराधनाने हुं आपना प्रसादथी आराधीश. हे भगवान! आपना उपदेशरूपी
आवा अमृतनुं आस्वादन करीने कोई कायर पुरुष पण क्षुधा–तृषा के
मरणादिकना भयने पामता नथी,–तो हुं केम भय पामु? नहीं पामुं–ए मारो
निश्चय छे. हे देव! आपना चरणना अनुग्रहरूप गुणने लीधे मारी आराधनामां
विघ्न करवा ईन्द्रादिक देवो पण समर्थ नथी; तोपछी आ क्षुधा–तृषा–परिश्रम–
वातपित्तादि रोग–ईन्द्रियविषयो के कषायो मारा ध्यानमां शुं बाधा करशे?–कंई
ज नहीं करी शके.