Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 49

background image
: माह : २४९८ आत्मधर्म : ३ :
आराधनामां शूरवीर एवा क्षपकमुनिराज वीरतापूर्वक श्रीगुरु प्रत्ये कहे छे के
कदाचित मेरूगिरिपर्वत पोताना स्थानथी चलायमान थई जाय, के पृथ्वी ऊंधी थई
जाय, तोपण आपना जेवा गुरुना चरणप्रसादने लीधे हुं कदी विकृति नहीं पामुं,–
आराधनामांथी नहीं डगुं.
––ए रीते समाधिमरण माटे जागृत एवा ते क्षपकमुनिराज, पोतानी शक्तिने
छूपाव्या वगर वीरतापूर्वक कर्मने खपावे छे, तेमज समाधि–मरण करावनारा निर्यापक
आचार्य पण आळस छोडीने क्षपकनुं ज्ञान जागृत रहे तेम निरंतर परमधर्मनी
आराधनानो उपदेश आपे छे.
• •
समाधिमरणमां उत्साहितचित्तवाळा ते क्षपकमुनि कदाचित पापकर्मना उदयथी
क्षुधा–तृषा के वेदना वगेरेनी तीव्र पीडावडे व्याकुळ थई जाय, परिणाममां शिथिल थई
जाय, भोजन–पाणीने याद करे, तो एवा प्रसंगे करुणानिधान आचार्य पोते जरापण
धैर्य छोडया वगर ते मुनिनी ‘सारणा’ करे एटले के तेना रत्नत्रयनी रक्षानो उपाय
करे; जे रीते तेना परिणाम उजवळ थाय ने तेनी चेतना जागृत थाय ते रीते तेने
संबोधन करे.
क्षपकनी सावधानीनी परीक्षा करवा माटे वारंवार तेने पूछे के––‘हे आत्म
कल्याणना अर्थी! तमे कोण छो? तमारुं पद कयुं छे? तमे क््यां वसो छो? अमे कोण
छीए?’ एम पूछतां ते क्षपकमुनिनी चेतना जागृत थई जाय छे के अरे! हुं तो मुनि
छुं; में पंचमहाव्रत सहित संन्यास धारण करेल छे. हुं अचेत थईने अयोग्य आचरण
करुं ते मने शोभतुं नथी. आ शिथिल परिणाम छोडीने रत्नत्रयधर्मना पालनमां मारे
सावधान रहेवुं योग्य छे. आ आचार्य परमउपकार करनारा गुरु छे––तेओ मने जागृत
करे छे; माटे हवे मारे सावधान थईने रत्नत्रयना सेवनसहित समाधिमरण करवुं
उचित छे.
ए प्रमाणे क्षपकनी चेतना जागृत देखीने आचार्यभगवान अत्यंत
वात्सल्यभावथी तेनी आराधनानी रक्षा माटे ‘कवच’ करे छे. कवच एटले बख्तर;
जेम युद्धमां कवचवडे गमे तेवा प्रहारथी पण रक्षा थाय छे तेम तीव्र वेदना वगेरे गमे
तेवा परिषहोनी वच्चे पण उल्लसित परिणाम वडे साधकना रत्नत्रयनी रक्षा थाय–ते
माटे आचार्य महाराज तेने उत्तम वैराग्यथी भरेला आराधनाना उपदेशरूपी कवच
पहेरावे छे.