Atmadharma magazine - Ank 340
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४९८ आत्मधर्म : ५ :
रोगादिक व्याधि अशुभकर्मना उदयथी आवे छे; ते वखते दीन थईने वर्तशो के
धैर्य छोडी देशो–तो तेथी कांई तमारो उपद्रव दूर थई जवानो नथी. तमारा पोताना
परिणामथी उपजावेलुं अशुभकर्म दूर करवा कोई देव पण समर्थ नथी. माटे रोगादि
प्रतिकूळता आवतां कायरता छोडी, महान धैर्यपूर्वक, कलेशवगर भोगववुं श्रेष्ठ छे––
जेथी आराधनामां भंग न पडे, अने पूर्वकर्मनी निर्जरा थाय तथा नवुं कर्म न बंधाय.
हे चारित्रधारक! चार प्रकारना संघनी समक्ष तमे ‘हुं आराधना धारण करुं छुं’
एवी महाप्रतिज्ञा लीधी हती–ते शुं तमे भूली गया? तमारी ते प्रतिज्ञाने तमे याद करो.
युद्धनुं आह्वान करीने रणे चडेलो शूरवीर शुं वेरीने देखीने भयथी भागतो हशे?–कदी
नहीं. तेम सर्वसंघनी सन्मुख जेणे आराधनानी द्रढप्रतिज्ञा करी छे एवा उत्तम साधु
परिषहरूप वेरीने देखीने मुनिधर्मथी केम चलायमान थाय? विषाद केम करे? कदी न
करे. मरण आवे तो भले आवे, परंतु शूरवीर साधुओ आपदानी अत्यंत तीव्र वेदनाने
पण समभावपूर्वक सहन करे छे, परिणामने विकृत थवा देता नथी; कायरता के दीनता
करता नथी.
अहा, जिनेन्द्रभगवाने आदरेली आराधनाने में धारण करी छे, अनंतभवमां
दुर्लभ एवो संयम मने वीतरागीगुरुओना प्रसादथी प्राप्त थयो छे; तो हवे कंईक
रोगादिजनित उपसर्ग आव्यो छे तेमां मरण थाय तो भले थाय पण आराधना छोडवी
योग्य नथी. एकवार मरवानुं तो छे ज–तो पछी गुरुना प्रसादथी व्रतसहित मरण थाय
तेना जेवुं बीजुं कल्याण कोई नथी. अरे! आवा अवसरमां कायर थई व्रतादिमां
शिथिल थई विलाप करवो के तूच्छकार्यवडे रोगादिनो ईलाज ईच्छवो–ते तो लज्जा अने
दुर्गतिनां दुःखनुं कारण छे;–तो एवुं कोण करे? एक जीवनने माटे मुनिधर्मने के संघने
कलंक कोण लगाडे? गमे तेवी प्रतिकूळता आवे–पण शूरवीर–पुरुषो आराधनामां पाछी
पानी करता नथी, दीनता के कायरता करता नथी.
जेम कोई पुरुष चारे तरफथी अग्निवडे दग्ध थतो होवा छतां, जाणे के पाणीनी
वच्चे ऊभो होय–एम शांत–निराकुळ रहे छे, तेम धीरवीर साधुजनो अग्नि वच्चे पण
निराकुळपणे आराधनामां स्थिर रहे छे. अरे, स्वर्गादि परलोक संबंधी ईन्द्रियसुखोमां
लुब्ध अज्ञानीओ पण ईन्द्रियसुखनी अभिलाषाथी संसारवर्द्धक लेश्यापूर्वक तीव्रवेदना
सहन करे छे, तो जेमणे समस्त संसारने अत्यंत दुःखरूप जाण्यो छे अने जेओ
संसारदुःखथी छूटीने मोक्षसुखने साधवामां तत्पर छे एवा जैनयतिओ शुं निराकुळपणे