Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९८ आत्मधर्म : ११ :
मारा भवनो अंत आवी गयो,–एम अंदरथी धर्मीने भवना अंतना रणकार आवे छे.
अरे, अत्यारे तो अनंत भवनां दुःखोथी छूटीने मोक्षसुखने साधवानो मारे अवसर
आव्यो छे. हवे आ संसारदुःखोथी बस थाओ, बस थाओ! आत्माना स्वभावनुं कोई
परम सुख, तेनो स्वाद लेवानो आ अवसर छे. अहा, मारुं चैतन्यतत्त्व जे मारा
अंतरमां स्पष्टपणे सदा प्रकाशमान छे, एवा निर्दोष चैतन्यतत्त्व उपर आ परभावरूपी
कषायचक्रना लेप शोभता नथी. शास्त्रमां (नयचक्रमां) कह्युं छे के व्यवहार ते तो
निश्चय उपरनो लेप छे. जेम लेपथी मूळवस्तु ढंकाई जाय छे तेम आत्मानुं जे निश्चय
शुद्ध स्वरूप छे ते, परभावरूपी व्यवहारना लेपवडे ढंकाई जाय छे, अज्ञानीने रागादि
व्यवहारभावोवाळो ज आत्मा देखाय छे, शुद्धआत्मा तेने देखातो नथी, अनुभवातो
नथी; पोताने तेनो अनुभव नथी ने अनुभवी–ज्ञानीओ पासेथी ते सांभळवानो
अवसर आव्यो त्यारे तेनी प्रीति पण करतो नथी.
अरे, मारुं आ चैतन्यतत्त्व एकत्वस्वभावमां शोभतुं, तेना उपर कषायचक्रना
लेप शा? शुभ–अशुभभावरूपी कषायचक्र साथे चैतन्यने संबंध केवो? चैतन्यना शांत
निराकुळस्वभावने कषायो साथे एकता नथी, भिन्नता ज छे. आवुं भिन्नपणुं ज्ञानीओ
बतावे छे. तेने सांभळी, तेनो प्रेम करी, वारंवार तेनो परिचय करीने, ते अनुभवमां
लेवा जेवुं छे.–आ ज कल्याणनी रीत छे; भाई! आवा तत्त्वनो प्रेम कर तो तारी
बगडेली बाजी सुधरी जशे, तारो भव सुधरी जशे, आत्मानुं परमसुख तने तारामां
देखाशे. आवुं भेदज्ञान ताराथी थई शके तेवुं छे, ते ज ज्ञानीओ तने समजावे छे.
आत्मा पोते पोताने प्रत्यक्ष देखाय एवो छे. अंतरनी प्रीतिथी अभ्यास करतां, दुर्लभ
तत्त्व पण सुलभ थई जाय छे, बाह्य विषयोनी मीठाश हती त्यारे रागथी भिन्न
चैतन्यतत्त्व दुर्लभ हतुं; हवे रागथी भिन्न चैतन्यना अभ्यासरूप भेदज्ञान वडे
आनंदमय आत्मतत्त्व सुलभ थयुं छे, ज्ञानीने ते स्वानुभवगम्य थयुं छे माटे ते सुलभ
छे. ज्ञानी पासेथी सांभळीने अंदर प्रयोग करतां ‘प्राप्तनी प्राप्त’ थाय छे,–स्वभावमां
हतुं ते पर्यायमां प्रगट्युं छे. पूर्वे अज्ञानदशामां दुर्लभ हतुं––पण हवे ‘समयसार’ ना
श्रवणथी अमारुं एकत्व अमने सुलभ थई गयुं छे.–आत्मज्ञ संतोनो ए प्रताप छे.
पोताना एकत्वस्वभावनुं आवुं भान कर्युं ते ज आत्मज्ञ संतोनी खरी उपासना छे.
आत्मानुं शुद्धस्वरूप पूर्वे कदी जाण्युं नथी–अनुभव्युं नथी–प्रेमथी सांभळ्‌युं पण
नथी; ते शुद्धस्वरूप जाणवानी जेने हवे धगश जागी छे एवा शिष्यने अहीं