Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९८ आत्मधर्म : १३ :
‘हुं पोते चैतन्यराजा छुं’
रागथी भिन्न चैतन्यनी अनुभूति छे ते ज हुं छुं,–मारुं
चैतन्यस्वरूप ज जगतमां सौथी श्रेष्ठ छे.–एम चैतन्यराजापणे
पोते पोताने जाणी–श्रद्धी–अनुभवीने मुमुक्षु जीव पोते पोतानी
अनुभूति वडे मोक्षने साधे छे. भाई, आत्मानी सेवानो ने मोक्षने
साधवानो आ उत्तम अवसर छे.
(अमरेलीशहेरमां फागण सुद एकमथी पांचम सुधी जिनेन्द्र–प्रतिष्ठा महोत्सव
प्रसंगे समयसार गा. १७–१८ उपरनां प्रवचनोमांथी)

आत्मा देहथी भिन्न एक महान चैतन्यतत्त्व छे. भाई! तारे तारुं कल्याण करवुं
होय तो तारो आत्मस्वभाव केवो छे, केवडो छे, ते ओळखवुं पडशे, आत्मानुं स्वरूप
अज्ञानथी के रागथी मापी शकाय तेवुं नथी. अंदर ज्ञानवडे आत्माने ओळख, तो ज
तारा जन्म–मरणनो अंत आवशे. जेम राजाने ओळखीने तेनी सेवा करतां धनना
अर्थीने धननो लाभ थाय छे तेम जगतमां सौथी श्रेष्ठ एवा आ चैतन्यराजाने
ओळखीने तेनी सेवा एटले के अनुभव करतां मोक्षार्थीने मोक्षनो लाभ थाय छे.
अरे, ‘आत्मा शुद्ध छे, बुद्ध छे, निर्विकल्प छे, उदासीन छे’ एवी
अध्यात्मविद्याना संस्कार तो अगाउ बाळकने पारणामां हींचोळता–हींचोळतां माताओ
हालरडामां संभळावती हती. बाळ–गोपाळ बधाय जीवो आवा शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप छे,
तेना संस्कार नांखीने तेनी ओळखाण करवा जेवुं छे. भाई, तुं शुभाशुभरागनुं सेवन
अनादिथी करी रह्यो छे, पण तेमांथी जराय सुख तने न मळ्‌युं. सुखनो भंडार तो आ
चैतन्यराजा पासे छे, तेने ओळखीने तेनी सेवा कर, तेनी श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव कर तो
तने सुखनी प्राप्ति थशे.
आत्माने केवो अनुभववो! ते वात आ समयसारमां समजावी छे; तेमां आ
१७–१८ मी गाथा वंचाय छे. वात तो आत्माना अनुभवनी घणी ऊंची छे, पण जेने
सुखी थवुं होय तेणे आ वात समजवा जेवी छे. आ समज्ये ज सुखनी प्राप्ति थाय तेम
छे; बाकी तो बधुंय मृगजळमां फांफां मारवा जेवुं छे.