Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९८ आत्मधर्म : ३ :
अनादिथी बहु दुःखी थयो आत्मा ज्ञानस्वरूप तो छे ज, पण ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं’ एवी
अनुभूति ज्यां सुधी न करे त्यांसुधी ज्ञाननो स्वाद आवे नहि, एटले ज्ञाननी सेवा
थाय नहीं. अरे, ज्ञाननी सेवा करे–एनी दशा तो रागथी जुदी पडी जाय, ने अलौकिक
आनंदना वेदनसहित तेने मोक्षमार्ग प्रगटे.
जुओने, आत्मानी सेवा करवानुं बताववा माटे द्रष्टांत पण ‘राजा’ नुं आप्युं
छे. राजा एटले श्रेष्ठ! मोक्षार्थीने माटे आ चैतन्यस्वरूप ज्ञायक राजा ज सौथी श्रेष्ठ छे,
ते ज सेववायोग्य ने आराधवायोग्य छे. आत्म–राजा तो चैतन्यभावमां तन्मय छे; ते
कांई रागादि साथे तन्मय नथी; एटले आत्मानी सेवा करनार रागनी सेवा करे नहीं;
रागथी जुदो पडीने, ज्ञानमां तन्मय थईने ज्ञानभावपणे जे परिणम्यो तेणे
चैतन्यराजानी सेवा करी, तेणे ज्ञाननुं सेवन कर्युं.
जिनभगवाने आवा ज्ञानस्वरूप आत्मामां वसवानो उपदेश कर्यो छे. ज्ञानमां
वसवुं ते साचुं वास्तु छे. रागरूपी परघरमां अनादिथी वसी रह्यो छे, एटले रागथी
जुदो पडीने ज्ञानने एकक्षण पण तेणे सेव्युं नथी. एकक्षण पण जो रागथी जुदो पडीने
ज्ञानने सेवे, ज्ञानरूपे पोताने अनुभवे, तो मोक्षनो मार्ग खुल्ली जाय. माटे हे मोक्षार्थी
जीवो! तमे स्वसन्मुख थईने ज्ञानवडे आ चैतन्यराजाने सेवो; तेने जाणीने तेनी श्रद्धा
करो, ने तेमां ठरो.
अरे, रागने सेवे तेने मोक्षार्थी केम कहेवाय? रागनो अर्थी ते मोक्षनो अर्थी
नहीं; मोक्षनो अर्थी ते रागनो अर्थी नहीं. ज्ञान–आनंदनुं धाम आत्मा पोते छे, पण
ज्यां सुधी ते पोते पोताने ज्ञानरूपे अनुभवतो नथी त्यां सुधी ज्ञाननी सेवा थती नथी,
ने ज्ञाननी सेवा वगर मोक्षनी सिद्धि थती नथी. माटे जिनशासनमां भगवाने मोक्षार्थी
जीवोने ज्ञाननी सेवानो उपदेश दीधो छे.
जोके आत्मा ज्ञानस्वरूप तो छे ज, तोपण अज्ञानी ज्ञानने एकक्षण पण
अनुभवतो नथी, ते तो रागने ज सेवे छे. जो ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं’ एम पोते ओळखे–
अनुभवे तो रागथी भिन्न ज्ञानदशारूपे परिणमे, अने त्यारे तेणे ज्ञाननी सेवा करी
कहेवाय; ‘हुं ज्ञान छुं’ एवा श्रद्धा–ज्ञान–अनुभव वडे आत्मराजानी सेवा करतां आत्मा
जरूर सिद्धिने पामे छे; अने आवा ज्ञानमय आत्मराजानी सेवा वगर बीजा कोईपण
उपाय वडे आत्मा सिद्धिने पामतो नथी.
हे भाई! जेमां अनंतगुण वसेला छे एवी चैतन्यवस्तु तुं पोते छो; अरे
चैतन्यराजा! तारा अचिंत्य वैभवने तें कदी जाण्यो नथी, तारा स्वघरमां तें वास