Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : ७ :
छे के अहा! अमे आवा चैतन्यस्वरूप ज छीए; तेने जाणीने हवे सततपणे
अनंत चैतन्यचिह्नपणे ज अमे अमने अनुभवीए छीए. चैतन्यस्वरूप आत्मानी
आवी अनुभूतिथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी. आवी अनुभूतिवडे अमारा साध्य आत्मानी
अमने सिद्धि थई छे. बीजा कोई उपाय वडे साध्य आत्मानी सिद्धि थती नथी.
रागमां जेने एकत्वबुद्धि छे ते रागथी जुदो पडीने चैतन्यमां ठरवानी ताकात
क्यांथी लावशे? हजी रागथी जुदा चैतन्यने जे जाणतो ज नथी ते तेने साधशे क्यांथी?
आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे; आबाळ–गोपाळ बधाय जीवो ज्ञानस्वरूप ज छे, भगवान
आत्मा तो पोते सदाय ज्ञानपणे ज अनुभवाय छे.–पण ‘आ ज्ञान छे ते हुं छुं’ एम ते
जाणतो नथी ने रागादि भावो साथे भेळसेळरूपे पोताने अनुभवे छे, तेथी ते जीवो
रागथी भिन्न एवा साध्य आत्माने साधी शकता नथी. परभावोथी भिन्न, चेतनास्वरूप
आत्मानो अनुभव ते ज आत्माने साधवानी रीत छे.
[आ लेखना बीजा भाग माटे जुओ पानुं : १६]
• आत्मानुं अस्तित्व •
प्रश्न:–सम्यग्द्रष्टि पोताना आत्माने केवो माने छे?–जो शुद्ध माने छे तो,
जे विकारी अवस्था होय छे तेनुं शुं?
उत्तर:–सम्यग्द्रष्टिए पोताना आत्मामां शुद्धस्वभाव, अने पर्यायनी
शुद्धता–अशुद्धता एम बधा पडखांने जाण्या छे; शुद्धस्वभावनो
अनंत–अचिंत्यमहिमा तेना स्वानुभवमां भास्यो छे, ने एने
ज ‘स्व’ तरीके ‘आ हुं’ एम स्वीकार्यो छे. ए स्वभाव पासे विकार
ते स्वजात नथी–एम ते स्पष्ट अनुभवे छे. एटले विकार होवा
छतां धर्मीजीव स्वभावद्रष्टिथी पोताने शुद्ध ज अनुभवे छे, ते
अनुभुतिमां छे, ते अनुभूतिमां तो विकारनो प्रवेश नथी. धर्मीने
पर्यायमां कांई एकली अशुद्धता नथी, अनंतगुणनी शुद्धता पण वर्ते
छे. अशुद्धताथी जुदुं पोतानुं सत्पणुं ते देखे ते छे.
ज्यारे अज्ञानीने तो अशुद्धि अने विकारथी विशेष बीजुं
शुद्ध अस्तित्व आस्वादमां ज आव्युं नथी, विकारथी जुंदुं पोतानुं
कांई सत्पणुं तेने देखातुं ज नथी, एटले विकारी आत्मा ज तेने
भासे छे. एकला विकारमय आत्मानी अनुभूति ते मिथ्यात्व
छे. * [रत्नसंग्रह भाग–२]