
अनुभूतिमां तो एक सहज चैतन्यविलासरूप आत्मा ज प्रकाशे छे. धर्मीने भेदना
विकल्पोनुं ग्रहण नथी, तेणे तो पोताना शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूपमां ज चित्तने
एकाग्र कर्युं छे; एटले शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्याय सिवायना समस्त परभावोनो परिग्रह
तेने नथी. आ रीते निजभावोथी भिन्न सकल अन्यभावोने छोडीने ते अल्पकाळमां
मुक्ति पामे छे.
ग्रहण वगर परभावनो त्याग थाय नहीं. ईन्द्रियो मारामां छे ज नहि–त्यां ईन्द्रियोनुं
आलंबन केवुं? ईन्द्रियातीत ज्ञानवडे जे जाणवामां आवे एवो हुं छुं. आवा आत्मामां
उपयोग जोडतां ज्ञानमां भेद–विकल्प रहेता नथी, अभेद अनुभूति जामे छे आवी
अनुभूति जामी त्यां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन छे. आत्मा पोते पोतामां जामी
गयो....लीन थयो, त्यां कोई परभाव तेमां न रह्या. आवी परिणतिरूपे आत्मा परिणमे
तेने परमार्थ प्रतिक्रमण कहेवाय छे.
स्वीकारनारी द्रष्टिमां पण कषाय नथी; एटले द्रव्य ने पर्याय बंने शुद्ध छे.–आवा
स्वतत्त्वने धर्मी अनुभवे छे; पछी पर्यायमां कांईक रागादिभावो रहे तेने तो खरेखर
परज्ञेयपणे जाणे छे. अहा! आवो मारो भगवान आत्मा! ते हवे मारा अनुभवमां
आव्यो; हवे कोई परभाव मने मारा स्वरूपे भासता नथी. हुं तो एक परमस्वभाव ज
छुं. भेदनो विषय हुं नहीं, द्रव्य–गुण–पर्यायनाय भेद वगर एक अभेद परमभावरूपे
अनुभवमां आव्यो ते हुं छुं–सम्यग्दर्शन थयुं तेमां आवो आत्मा साक्षात् थयो छे, स्पष्ट
निःशंक अनुभवमां आव्यो छे.