
मारुं कर्तापणुं, अनुमोदवापणुं के कारणपणुं मारा सहज चैतन्यभवनी
अनुभूतिमां ज समाय छे. एनाथी बहार कोई भंग–भेदोमां हुं नथी.–आम
धर्मी अनुभवे छे भेद–विकल्प तो हुं छुं ज नहीं, तो जे हुं नथी तेनो कर्ता हुं केम
होउं?
नथी, एटले तेना फळरूप चारगति मने नथी; तेनो हुं कर्ता नथी.
छे तेनी अनुभूतिमां गुणस्थान–मार्गणास्थानसंबंधी कोई परभावोनुं अस्तित्व
ज नथी एटले तेमनुं कर्तापणुं नथी. धर्मीनी स्वसत्ता तो आनंदमय
चैतन्यविलासथी भरेली छे. आवी चैतन्यसत्तामां जड शरीर केवुं ने राग
केवो?–तोपछी ते जड शरीरथी ने रागथी जीवने धर्म थाय–ए वात पण केवी?
अहा, मारुं तत्त्व सर्वे भेदभंगरूप व्यवहारना विकल्पोथी निरपेक्ष छे;
परभावोथी जुदुं मारुं सहज तत्त्व छे तेने ज हुं भावुं छुं. जुओ, भेदज्ञानवडे
आवा तत्त्वनी भावनाथी वीतरागता थाय छे, ने चारित्र प्रगटे छे–एम आ
पांच गाथा पछी तरत (८२ मी गाथामां) कहेशे.
पण शरीरनी क्रियानुं के रागना एक विकल्पनुं पण कर्तृत्व (तेनी मीठाश) जेने
होय तेने तेमां मध्यस्थता न थाय, ने मध्यस्थता वगर वीतरागता न थाय,
वीतरागता वगर चारित्रदशा न थाय. आ रीते भेदज्ञान वगर, एटले के
शुद्धात्मानी भावना वगर कदी चारित्र होतुं नथी. अहो, जैनमार्ग कोई अलौकिक
छे....आ तो अंतरमां चैतन्यनो वीतरागी मार्ग छे.