Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : ११ :
आ रीते पांच रत्नो जेवी आ पांच गाथाओमां कहेला भेदज्ञाननी
भावनावडे जेणे पोताना सहज चैतन्यतत्त्वने समस्त परभावोथी भिन्न पाडयुं छे,
भेदज्ञानवडे समस्त विषयोनी ने परभावोना ग्रहणनी चिन्ताने छोडी दीधी छे ने
पोताना शुद्ध–द्रव्य–गुण–पर्यायना स्वरूपने ज ग्रहण कर्युं छे, एवो भव्यजीव
अल्पकाळमां ज मुक्तिने पामे छे. भेदज्ञाननी भावनानुं आ फळ छे.
अध्यात्मरसनी अपूर्व धारा भेदज्ञानमां वहे छे.
धर्मीए भेदज्ञानवडे बे विषयोने ज जुदा पाडी नांख्या–एककोर अंतरमां
शुद्ध अभेद स्वविषय; अने बीजीकोर बधाय परविषयो; आवा भेदज्ञानवडे शुद्ध–
स्वविषयनुं ग्रहण कर्युं, ने समस्त परविषयोनुं ग्रहण–छोड्युं.–आवुं करे त्यारे
मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण करीने जीव सम्यग्द्रष्टि थाय. परविषयमां तो शुद्धात्मा सिवाय
बीजुं बधुंय आवी गयुं. कोई पण परवस्तुने विषय बनावीने जे शुभवृत्ति ऊठे ते
पण आत्मानो स्वविषय नथी, तेने पण परविषय जाणीने धर्मी छोडे छे, एटले के
स्वविषयथी तेने भिन्न जाणे छे. जेने भिन्न जाणे तेनुं कर्तृत्व केम होय? तेनी
भावना केम होय? तेनुं ग्रहण करवानी बुद्धि केम होय? आ रीते धर्मीने समस्त
परविषयोना ग्रहणनी बुद्धि छूटी गई छे ने शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायरूपे एक
स्ववस्तुनुं ज ग्रहण छे, तेमां ज एकाग्रचित्त वडे ते परमआनंदने अनुभवे छे ने
मोक्षने साधे छे.
आवा आत्माना अनुभवमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी निर्मळपर्यायना
भेदरूप भावलिंग पण नथी. अनुभवमां निर्मळपर्याय थाय छे, खरी, पण ‘आ
द्रव्य, ने आ मारी निर्मळपर्याय’ एवा भेदो एक अभेद चीजमां नथी. अभेदमां
भेद उपजावता विकल्प ऊठे छे ने आकुळता थाय छे, त्यां बीजा बाह्यविकल्पोनी तो
शी वात? विकल्पो तो आकुळतानी भठ्ठी छे, चैतन्यनी शांति तेमां नथी.
शांतरसना पिंडरूप मारुं चैतन्यतत्त्व, ते विकल्पनी अशांतिमां कदी आवे नहीं;
सुखना समुद्रमां मग्न थयेलो आत्मा, आकुळतानो कर्ता केम थाय? अहा! आवुं
चैतन्यतत्त्व...तेने लक्षमां लेतां परम आनंद थाय छे. एकवार आवुं तत्त्व अंदर
लक्षमां तो ल्यो. एने लक्षमां लेता एक पळमात्रमां सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान ने
महान आनंद थशे.
जेणे स्वानुभवथी आवा निजतत्त्वने जाण्युं तेणे बधुं जाण्युं. अने जेणे
निजतत्त्वने न जाण्युं तेनुं बीजुं बधुं जाणपणुं निष्फळ छे.–