Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 45

background image
: १२ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
जब जाण्यो निज रूपको तब जान्यो सब लोक;
जान्यो नहि निज रूपको तो सब जान्यो सो फोक.
भाई, परभावोथी भिन्न तारा शुद्ध स्वतत्त्वने जाण्या वगर तुं परभावोने कई रीते
छोडीश? तारी द्रष्टिमां स्वतत्त्वने ग्रहण कर तो ज परविषयो साथेनी एकताबुद्धि छूटे
एटले मिथ्यात्वादिनुं प्रतिक्रमण थाय.
अंतर्मुख अवलोकन वडे ज मोह–विकल्पो छूटे छे. –
उपजे मोह–विकल्पथी समस्त आ संसार;
अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.
अंतरमां नजर करतां ज तारा बधा परभावो छूटी जशे ने तारुं शुद्ध स्वरूप तने
अनुभवमां आवशे. निर्मळपर्याय थाय ते अंदर शुद्धस्वरूप साथे अभेद थाय छे;
स्वसन्मुखपणे आत्मा निर्मळपर्यायमां अभेदपपणे परिणमे छे, ने रागादि परभावोथी
भिन्नता थई जाय छे.–आनुं नाम ज भेदज्ञान छे. आवा भेदज्ञाननी भावना वडे
अल्पकाळमां चारित्रदशा प्रगट करीने जीव मुक्तिने पामे छे.
एक भूल:––आत्मधर्मना गतांकमां, (अंक ३४१ पानुं २२ बीजी लाईनमां) सांतर
अने निरंतर गुणस्थानोनुं जे कथन छे तेमां, १४मुं गुणस्थान सांतर
होवा छतां भूलथी निरंतर गुणस्थानोमां लखाई गयुं छे, तो ते
सुधारीने वांचवा विनंती छे. निरंतर गुणस्थानो १, ४, ५, ६, ७, अने
१३ ए छ छे; सांतर गुणस्थानो २, ३, ८, ९, १०, ११, १२, अनु १४
ए आठ छे. (आ शरतचूक प्रत्ये ध्यान खेंचवा माटे ईंदोरना
मुमुक्षुभाईनो आभार मानीए छीए.)
विशेषमां तेओ लखे छे के चैतन्यनी मीठी–मधुरी चर्चा बहु
सरस है. शब्दब्रह्मकी जमावट बहुत ही सरस सुन्दर है, और अब
आत्मधर्मकी निखरता, यानी सर्वांग चहुंमुखी प्रखरता लिये हुए चल
रही है; चारों अनुयोगोंकी कथनी प्रत्यक्ष एकांतवादियोंकि श्रद्धाको
डांवाडोल कर रही है
(ली. –ब्र. स्वरूपानंद, उदासीन आश्रम, ईंदोर)