Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
श्रीगुरुए निरंतर आवुं आत्मतत्त्व समजाव्युं. ‘निरंतर’ समजाव्युं–तेमां
भावार्थ एवो छे के शिष्यने आत्मस्वरूप समजवानी धून चडी, निरंतर समजवानी
धगशथी अंतरमां ऊतरवा लाग्यो. श्रीगुरु कांई निरंतर उपदेश देता न होय, पण
एकवार श्रीगुरु पासेथी सांभळतां पण मात्र शिष्यने अंदर चैतन्यमां तेनी धून चडी
गई. परसन्मुख भावमां ते अटकतो नथी, रागमां राजी थतो नथी; रागमां राजी
थनारने राग वगरनुं तत्त्व क्यांथी अनुभवमां आवे? देव–गुरु तरफनी भक्तिना
रागमां राजी थई जाय, तो तेणे खरेखर वीतरागी गुरुनो उपदेश सांभळ्‌यो नथी.
वीतरागी गुरुनो उपदेश तो रागथी भिन्न चैतन्यनो अनुभव करवानुं कहे छे. तुं
रागथी जुदो पडीने चैतन्यरूप था, तो तारुं कल्याण थाय. तुं पूर्ण आनंदनो दरियो, तेमां
रागना विकल्पो केवा? बहारना विकल्पोथी तारुं स्वरूप नीराळुं छे. देव–गुरु तरफनो
विकल्प तुं नहीं, अंतरनी चेतनावडे जे स्वसंवेदनमां आवे ते तुं छो.–आवुं सांभळीने
शिष्य अंतरमां तेवा भेदज्ञान माटे मथ्यो, अने तेवो ज अनुभव कर्यो. ते उपकारथी कहे
छे के अहो! मारा गुरुए मने आवुं स्वरूप निरंतर समजाव्युं. आनाथी विरुद्ध उपदेश
आपे ते गुरु साचा नहि. रागथी लाभ माने एवा गुरुना उपदेशथी आत्मानुं साचुं
स्वरूप समजाय नहीं. अहीं तो सवळी ज वात छे. साचा गुरुनो उपदेश महा भाग्ये
मळ्‌यो, ने अंतरनी लगनीथी पोते ते समज्यो; समजतां कहे छे के अहा! मारा
धनभाग्यथी मने मारुं आवुं स्वरूप समजवामां आव्युं. अंतरना कोई अलौकिक अपूर्व
पुरुषार्थथी पोते पोतानुं स्वरूप अनुभवीने न्याल थयो.....परमेश्वरनो पोतामां ज
साक्षात्कार थयो.....अहा, आवुं मारुं स्वरूप! एकलुं आनंदमय, रागथी तद्न न्यारुं,
आवुं स्वरूप महा पुरुषार्थथी में मारामां देख्युं.
जुओ, आ धर्मातमानी दशा! पोतानी आवी अपूर्व दशानी पोताने निःशंक
खबर पडे छे ने महान आनंद थाय छे. अरे, भगवान आत्माना भेटा थया तेनी शी
वात! आखी दशा फरी गई; परिणति एकदम गुलांट मारीने रागथी तद्न छूटी पडी
गई. अहा! श्रीगुरुप्रतापे मारुं आवुं स्वरूप में अनुभव्युं. चैतन्यनो दरियो हुं ज छुं;
चैतन्यस्वरूपमां मोहनो अंश पण नथी.
श्रीगुरुए आवुं स्वरूप समजाव्युं ने में मारामां आवुं स्वरूप अनुभव्युं; आ
रीते श्रीगुरुना अने शिष्यना भावनी संधि छे. पोते पोताना स्वभावनी सन्मुख थईने
तेनो अचिंत्य महिमा लक्षगत करी, तेमां सावधान थयो एटले तेमां उपयोगने एकाग्र
कर्यो, ए रीते पोताना स्वरूपने चेत्युं–अनुभवमां लीधुं....अत्यंत स्पष्ट