Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
प्रत्यक्ष मारुं स्वरूप छे. स्वानुभूतिथी हुं मारामां प्रसिद्ध थयो
छुं. ‘चैतन्यमात्र’ हुं छुं–ए मारा चैतन्यमात्र भावमां मारा अनंत गुणनो स्वाद
एकरसपणे समाय छे; पण रागादि परभावनो एक अंश पण तेमां समातो नथी.
आवो चैतन्यमात्र हुं, पोताथी ज पोताने अनुभवुं छुं. मारो आत्मा एवो नथी के,
रागवडे के पर तरफना ज्ञानवडे अनुभवमां आवी जाय. जेमां राग नथी, जेमां
परनुं अवलंबन नथी, एवा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्ञानवडे हुं मने वेदुं छुं. –आम धर्मी
पोते ज पोताना अनुभवनी साक्षी आपे छे.
हुं केवो छुं–ए धर्मीए पोताना स्वसंवेदनथी जाण्युं छे. ईन्द्रियोथी, रागथी के
एकला परोक्ष ज्ञानथी अनुभवमां आवुं एवो हुं नथी. मने मारो जे अनुभव थयो
ते ईंद्रियातीत स्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानथी थयो छे. मारा अनुभवमां चैतन्यमात्र भाव
छे, तेमां रागादि भावो नथी. चैतन्यमात्र भावमां आनंद वगेरे अनंता स्वभावो
समाय छे, पण रागादिनो अंश पण तेमां समातो नथी. मारो चैतन्यस्वभाव एक
छे, ते रागादि अनेक विभावो वडे भेदातो नथी; रागादि परभावो के गति वगेरे
विभावो–ते बधायथी जुदो ने जुदो एक चिन्मात्र भावरूपे ज हुं छुं–माटे हुं एक छुं.
रागादि अनेक परभाव होवा छतां तेमां मारी परिणति तन्मय थती नथी,
एकत्वस्वभावमां ज मारी परिणति तन्मय रहे छे, माटे एकपणे ज हुं मने
अनुभवुं छुं. अनेक प्रकारना भेदभावोपणे हुं मने अनुभवतो नथी, श्रीगुरुए पण
मारो एकत्व–ज्ञायकस्वभाव आवो ज उपदेश्यो हतो, ने निरंतर तेना अभ्यासथी
तेवो ज मारा अनुभवमां आव्यो. आवो अनुभव पोते कर्यो त्यारे गुरुना
उपदेशनी साची खबर पडी के गुरु मने आवुं स्वरूप कहेता हता. आ रीते पोताना
अनुभवनी ने गुरुना उपदेशनी अपूर्व संधि थई छे.
जुओ, आ आत्माना अनुभवनी दशा! आ रीते ओळखीने आत्मा
अनुभवाय छे. ओळखाणमां भूल होय तेने साचो अनुभव थाय नहीं. अहा,
आवुं चैतन्यतत्त्व जेणे अंदर लक्षगत कर्युं ते तो तरी गयो, न्याल थई गयो.
व्यवहाररूप नव तत्त्वो छे ते विकल्परूप छे, तेनाथी भिन्न ज्ञायकदेव–
एकभावरूप धर्मी पोताने अनुभवे छे. आवा अनुभवमां संवर–निर्जरारूप
शुद्धपर्याय थाय छे खरी; पण ते पर्यायना भेदने जोतां विकल्प थाय छे; ते
विकल्परूप भेदभावथी मारुं ज्ञायकतत्त्व जुदुं छे. एक ज्ञायकभावपणे हुं मने देखुं छुं,
तेमां नवतत्त्वना भेद देखाता नथी, माटे नवतत्त्वना भेदथी पार एक अखंड
ज्ञायकतत्त्व हुं छुं. नवतत्त्वना भेदमां