: १८ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
पिंड तेमां क्यांय विकल्पनो–रागनो–कर्मनो प्रवेश ज नथी. अहीं तो कहे छे के
आवा तत्त्वना अनुभवमां निर्मळपर्यायना भेद पण रहेता नथी. चैतन्यतत्त्व रागने
ओळंगे, भेदने ओळंगे, पण ज्ञान–दर्शनरूप पोताना स्वभावने कदी न ओळंगे आवो
चैतन्य भगवान हुं छुं. एम धर्मी अनुभवे छे. धर्मीना उपयोगमां उपयोग स्वरूप
आत्मा ज छे, तेना उपयोगमां क्रोधादि कोई भावो नथी. उपयोग स्वभावमां एकाग्र
थईने उपयोग परिणम्यो, ते ज भेदज्ञान छे, ते ज संवर छे, ते ज धर्मात्मानो अनुभव
छे. तेमां परम आनंद छे.
आचार्य भगवान कहे छे के हे जीवो! आवा आत्माने तमे अनुभवमां
ल्यो.....ए ज जैनशासननो परमार्थ छे.
[आ ३८मी गाथाना प्रवचनोमां आपे धर्मात्माना अनुभवनुं वर्णन वांच्युं;
हवे ७३ मी गाथामां पण धर्मीजीव आत्मानो अनुभव कई रीते करे छे तेनुं सुंदर वर्णन
छे, ते आप आ अंकमां ज वांचशो.]
पापना उदय वखते....?
प्रश्न:–पापकर्मना उदय वखते शुं करवुं?
उत्तर:–धैर्यपूर्वक आराधनामां अडग रहेवुं. पुण्यना उदय वखते जे
करवानुं छे, पापना उदय वखते पण ते ज करवानुं छे. धर्मीजीव पुण्योदय
वखते पण तेनाथी भिन्न आत्मतत्त्वनी भावना अने आराधनामां वर्ते
छे, तेम पापना उदय वखते पण तेनाथी भिन्न आत्मतत्त्वनी भावना
अने आराधनामां वर्ते छे. एवुं नथी के पुण्यना उदय वखते कांई जुदुं
करवानुं ने पापना उदय वखते तेथी कांईक बीजुं करवानुं होय! धर्मी
जीव तो ते छे के–‘पुण्य–पाप जे सम गणे...’ पुण्य अने पाप बंनेथी पार
ज्ञानभावरूपे पोते पोताने वेदे छे–आवी ‘ज्ञानचेतना’ ते धर्मीनुं चिह्न छे.
पुण्य अने पाप ए बंनेना फळ तो कर्मफळचेतनारूपे समाय छे,
ज्ञानचेतनामां ते नथी. पापकर्मना उदय वखते पण ज्ञानचेतनारूपे रहेवुं
ते धर्मीनुं काम छे; अने व्यवहारमां ते वखते वीतरागी देव–गुरु–धर्मनुं
बहुमान, धैर्यपूर्वक वैराग्य भावनाओ, धर्मात्माओनो विशेष संग, वगेरे
कर्तव्य छे. ए रीते पापना उदय वखते पण शूरवीर थईने आराधनामां
द्रढ रहेवुं, पण मुंझाईने आर्त्तध्यान न करवुं.