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परणी मारा चैतन्यनाथनी साथ,
हवे रागनां मींढोळ नहीं बांधुं;
लईने धर्मीए तेनो केवो अनुभव कर्यो–तेनुं आ समयसारमां वर्णन छे.
आनंदस्वरूप भगवान आत्मा, तेना संगे जीवने राग थाय नहि. आवा
थाय नहीं. ज्ञान अने रागनी एक जात नथी. ज्ञान तो रागथी ऊर्ध्व छे...जुदुं रहीने
तेने जाणे छे; ने रागनो नाश थवा छतां राग वगर ज्ञान तो टकी रहे छे; एवो ऊर्ध्व–
ज्ञानस्वभावी आत्मा छे. आवा ज्ञानस्वभावनो जे स्वामी थईने परिणम्यो ते हवे
रागनो स्वामी केम थाय? अरे, राग ते कांई आनंदना मार्ग होय? आनंद अने ते पण
अनंतकाळ टके एवो आनंद, तेनुं कारण पण एवुं ज महान होयने! रागथी पार एवुं
जे ज्ञाननुं स्वसंवेदन–ते ज परमआनंदनी प्राप्तिनो मार्ग छे. गणधर–मुनींद्र, ईन्द्रो–
मोटा राजाओ वगेरेनी सभामां भगवान महावीरे आवो मार्ग बताव्यो हतो, अने
अत्यारे विदेहमां सीमंधर भगवान पण सो ईन्द्रोनी सभा वच्चे आवो ज मार्ग बतावी
रह्या छे. त्यांथी साक्षात् सीधो सांभळीने कुंदकुंदाचार्यदेवे आ समयसारमां ते ज मार्ग
बताव्यो छे. आ वातनी साक्षी छे, ए वात नजरे जोनारा जीवो छे. जगतना महान
भाग्ये अत्यारे आ वात बहार आवी छे.
जाण्या छे. अजीवनो स्वामी अजीव होय, अजीवनो स्वामी जीव न. होय. जीव पोताना
ज्ञानस्वभावनो स्वामी छे. ज्ञायकभाव ज हुं छुं ने तेनाथी भिन्न रागादि कोई पण
परभावनो परिग्रह मने नथी, तेनो स्वामी हुं नथी.–आवा भेदज्ञानमां धर्मीने साचुं
निर्ममत्व छे. तेने ज स्वद्रव्यनुं ग्रहण ने परद्रव्यनो त्याग छे. श्रीमद् राजचंद्रजी टूंका
शब्दोमां सरस रहस्य समजावे छे के–हे जीव!