: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : २७ :
स्वद्रव्यनुं त्वराथी ग्रहण कर.
परद्रव्यनुं ग्रहण त्वराथी छोड.
स्वद्रव्यमां त्वराथी रमणता कर.
परद्रव्यमां रमणताने त्वराथी छोड.
स्वद्रव्यनो त्वराथी रक्षक था.
परद्रव्यनी रक्षकता त्वराथी छोड.
जुओ, आमां स्व–परनुं अत्यंत भेदज्ञान करावीने श्रीमद्राजचंद्रजीए आत्मानी
प्राप्तिनी ने आस्रवोथी छूटवानी रीत टूंकमां बतावी छे. आत्मानी प्राप्तिनी रीत संतोए
जाणी छे ने जाते अनुभवी छे ते ज बतावी छे; तेने हे जीव! तुं ग्रहण करीने निर्णय कर.
संतो कहे छे के आत्मा एक छे; पोते पोताने स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष थाय एवो
छे. विकल्पोनी अशुद्ध क्रियाथी पार शुद्ध छे. आवा तत्त्वना निर्णयना संस्कार
पहेलेथी होवा जोईए.
अरे, धर्मी माता तो बाळकने घोडीयामां हुलरावतां हुलरावतां गाती हती के
बेटा! तुं शुद्ध छो, तुं बुद्ध छो, तुं चिदानंद छो, तुं जगतथी उदासीन निर्विकल्प छो.
अध्यात्मना आवा उत्तम संस्कार ते भारतनी महान विद्या छे. लोकोने अमेरिका वगेरे
परदेशनी विद्यानी किंमत लागे छे पण भारतनी आ मूळ अध्यात्मविद्या मोक्षनुं कारण
छे, तेने लोको भूली रह्या छे. पण आ अध्यात्मविद्या वगर कदी साची शांति के सुख
मळवानुं नथी. आ तारी पोतानी चीज तारामां छे, ते ज संतोए बतावी छे. अनंत
गुणना अंशनुं जेमा वेदन थाय एवुं तो सम्यक्त्व छे. अनंतगुण एकरस थईने आनंद
अनुभवाय त्यारे सम्यक्त्व थाय. आत्मा आवी अद्भूत वस्तु छे, एना अनुभव वगर
शास्त्र भणतर पण तारी शके तेम नथी. जेणे स्वानुभव वडे समयकत्व प्रगट कर्युं ते
मिथ्यात्वना बोजाथी छूटीने, हळवी तूंबडीनी जेम तरतो थई गयो, ते हवे संसार–
समुद्रमां डुबे नहि. ते पोते निःशंक थई गयो के आ आत्मा हवे मोक्षने साधी रह्यो छे,
हवे आ आत्मा संसारमां डुबवानो नथी....नथी.
जेम कोई शाहुकारने कोई देवाळीयो कहे–तो तेने शंका न पडे; ते तो निःशंक छे.
–दुनिया भले देवाळीयो कहे, पण मारी मूडी मारी पासे पडी छे, ते हुं जाणुं छुं. तेम
अंतरना स्वानुभवी ज्ञानीधर्मात्माने कोई गमे तेवो कहे पण ते तो निःशंक छे के अरे,
दुनिया गमे ते बोले, दुनियानी नजर केटली? मारा अंदरना चैतन्यनिधानने में मारा
स्वानुभवथी देख्या छे, मारा निधान मारी पासे, मारामां ज पड्या छे. दुनियानी