Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
नजरे न देखाय तेथी शुं? मारा अंदरना महा गुप्त चैतन्यनिधान मने तो
स्वानुभव गोचर प्रत्यक्ष थया छे. हुं सामान्य–विशेषथी परिपूर्ण चैतन्यस्वभावी छुं.
मारा स्वभावथी हुं पूरो ज छुं.
भाई! जेणे पोताना ज्ञानमां त्रणलोक–त्रणकाळने जाण्या एवा सर्वज्ञ
परमात्मानो आ सन्देश छे, तारा हित माटेनुं कहेण छे के आत्मा एक शुद्ध ज्ञानानंदे
परिपूर्ण छुं एम स्वसन्मुख थईने तुं निर्णय कर; प्रथम ज आवा आत्मानो रस ऊडी
जाय छे, ज्ञानने परभावोथी भिन्न पाडे त्यारे ज तेमां आत्माना स्वभावनो निर्णय
थाय छे. आवो निर्णय करीने जीव स्वानुभव करे त्यारे परभावोथी ते निवृत्त थाय छे,
एनी ज्ञानचेतना परभावथी रहित थईने आत्माना शुद्धस्वरूपनुं संचेतन करे छे.
आवा ज्ञानमां कर्ता–कर्म–करण वगेरे संबंधी विकल्पो पण नथी, अभेद अनुभूतिस्वरूप
आत्मामां कोई भंगभेद नथी, आवा अनुभवमां आत्मा एक ज्ञायकभावपणे ज भासे
छे. आवो आत्मा अमे जाण्यो छे–अनुभव्यो छे अने ते ज तने नक्की करवानुं तथा
अनुभववानुं कहीए छीए,–एम वीतरागी सन्तोनुं कहेण छे; अने आवा अनुभवमां
चैतन्यना आनंद रसनां वहेण छे. अहा! चैतन्यनी आवी मजानी वात...एने लक्षमां
लेवी ते पण महान पात्रता होय त्यारे थाय छे. मारा चैतन्यनी अनुभूतिमां रागनो–
विकल्पनो एक अंश पण नथी–आवो अपूर्व निर्णय करीने जीव तेनो अनुभव करे छे.
आवो निर्णय पण जे न करे, ने रागना अंशने पण ज्ञानमां भेळवे तो तेने रागथी
भिन्न शुद्ध–एक–चैतन्यतत्त्वनो अनुभव क्यांथी थाय? एने तो रागमां ममत्व छे, तेथी
रागथी जुदा ज्ञानने ते अनुभवतो नथी. अहीं तो निर्णय करीने धर्मीजीवे केवो अनुभव
कर्यो तेनी वात छे. आत्माना स्वभावनो सम्यक् निर्णय जे करे ते रागादि आस्रवोने
जरूर छोडे छे, रागना अंशने पण ते पकडतो नथी; समस्त रागादिथी निवृत्त थईने ते
जीव ज्ञानस्वभावमां प्रवर्ते छे.–आ आस्रवोथी छूटवानी ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र
प्रगट करवानी रीत छे. ज्ञानस्वभावी आत्मा एक, तेने समस्त परद्रव्योथी भिन्नता छे,
अने परना आश्रये थता समस्त परभावोथी पण भिन्नता छे; निर्मळ परिणतिना
भेद पण तेमां रहेता नथी. निर्मळ परिणति थईने आस्रवो छूटया, पण त्यां हुं कर्ता ने
पर्याय कार्य–एवा भेदनी वृत्तिनुं उत्थान नथी, त्यां तो विकल्पथी पार चैतन्यनी
एकताना आनंदनी अनुभूति छे. अरेरे, प्रभुताथी भरेला जीवने रागवाळो
अनुभववो ते तो रंकपणुं छे. चैतन्यतत्त्व रागादिभावोथी रहित होवा छतां अज्ञानने