Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : ३१ :
अहा, अहीं तो कहे छे भाई! ज्यारे तुं तारा ज्ञानस्वभावनी सन्मुख था त्यारे
ज केवळी भगवानने तें खरेखर मान्या कहेवाय. ‘नमो अरिहंताणं’ तो घणा बोले छे,
पण अरिहंत भगवान केवा छे ने तेमणे बतावेलो आत्मा केवो छे तेने ओळखे तो ज
अपूर्व भेदज्ञान थाय, ने तेणे ज अरिहंतोने साचा नमस्कार कर्यां कहेवाय.
जेणे आत्माने जाण्यो छे–अनुभव्यो छे एवा धर्मात्मानी शी स्थिति होय छे
तेनी आ वात छे. जे पहेलांंमां पहेली कक्षानो धर्मी थयो छे तेणे पोताना आत्माने केवो
अनुभव्यो छे तेनुं आ वर्णन छे. अहो! हुं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं; ईन्द्रियोथी पार
अतीन्द्रियज्ञान मारुं स्वरूप छे, ने आवा ज्ञानमां ज महा–सुख छे. शरीररूप जड
ईन्द्रियो, ते ईन्द्रियोना अवलंबने थतुं बाह्यविषयोनुं खंडखंडरूप ईन्द्रियज्ञान, तथा ते
ईन्द्रियज्ञानमां जणाता बाह्य विषयो–ए बधाथी अत्यंत जुदो, मारो चैतन्यस्वभाव–छे
एम धर्मी अंतरमां पोताने अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावपणे प्रगट अनुभवे छे. आवी
अनुभवदशा ते प्रथम धर्म छे; ते ज सर्वज्ञ परमेश्वरनी परमार्थ स्तुति छे; अने त्यांथी
ज साचुं जैनपणुं शरू थाय छे.
(–विशेष आवता अंके)
‘आत्मधर्म’ पोष मासनो संपादकीय लेख वांचीने
पोतानो प्रमोद व्यक्त करतां श्री मूलचंदभाई तलाटी
मुंबईथी लखे छे के–ग्रंथाधिराज समयसारना घोलनना
पचास वर्षना सुवर्ण महोत्सव संबंधी लखाण आत्मधर्ममां
वांचीने अत्यंत आनंद थयो. खरेखर, आत्मधर्मना वांचक
मुमुक्षु भाई–बहेनोने समयसारमांथी गुरुदेवना पचास–
पचास वर्षना ऊंडा घोलनवडे नीकळेलुं अमृत मळी रह्युं छे,
ते अमृतपाननो सर्वेने माटे आ अमूल्य अवसर छे.
जैनशासनना आ अमूल्य ग्रंथना घोलन द्वारा अशरीरी
शुद्धात्मानी अनुभूतिनो सम्यक्मार्ग प्राप्त थाय छे. आ माटे
आपणे गुरुदेवना साचा ऋणी छीए. समयसारनी सुवर्ण
जयंति प्रसंगे अभिवादन!