: ३२ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
हे जीव! अावा चैतन्यतत्त्वनो अनुभव कर,
– के जेमां कोई पण परभावोनो प्रवेश नथी;
एनो अनुभव करतां ज मोक्षसुख
तने पोतामां ज देखाशे.
[मोटा आंकडिया के ज्यांथी २८ वर्ष पहेलांं आ
“आत्मधर्म” मासिकना प्रकाशननो प्रारंभ थयो हतो, त्यां
फागण सुद छठ्ठनुं आ प्रवचन छे. समयसार कळश ११.)
आत्मानुं शुद्धस्वरूप बतावीने आचार्यदेव कहे छे के हे जगतना जीवो! अंदर
तमारो आत्मा ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे, तेमां अंदर प्रवेश करीने तेने सम्यक्पणे
अनुभवो. आ जे शरीर देखाय छे ते तो जड पुद्गलनो पिंड छे; रागादि भावो छे ते
पण परभावो छे, ते कांई चैतन्यना भावो नथी; चैतन्यना स्वरूपमां ते रागादिनो
प्रवेश नथी; रागादिभावो आत्मामां प्रतिष्ठा पामता नथी–शोभा पामता नथी;
आत्मानी शोभा ते रागादिवडे नथी, आत्मानी प्रतिष्ठा–शोभा तो चैतन्यस्वरूपमां ज
छे. आवा आत्माने तमे सम्यक्पणे अनुभवो.
भाई, तारी साची वस्तु तो आवी चैतन्यमय छे, तेना अनुभव वडे ज आनंद
थाय तेम छे. रागनो अनुभव करीकरीने तुं अनादिथी दुःखी थई रह्यो छो.–
कहे महात्मा, सुण आत्मा, कहुं वातमां वीतक खरी;
संसारसागर दुःखभर्यामां अवतर्यो कर्मे करी.
आत्माने भूलीने तुं आ दुःखभर्या संसारमां असह्यदुःख भोगवी रह्यो छो.
चैतन्यनुं सुख चूकीने तुं परचीजमां सुख मानीने तेमां ज मोही रह्यो छो. बापु! हवे
आ संसारना दुःखथी छूटवा तुं आत्मानी ओळखाण कर.
धर्मीजीव पोताना आत्मा सिवाय, संसारनी बीजी कोई चीज मांगता नथी.