: ३४ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
के तारा चैतन्य साथे एकमेक थईने रहे. ए विकल्पो तारा चैतन्यभावथी जुदा
ने जुदा, बहार ज रहे छे. आवा चैतन्यस्वरूप तुं छो. रागनो आधार कांई तारुं
चैतन्यतत्त्व नथी. तारा चैतन्यतत्त्वना आधारे कांई रागनी–संसारनी उत्पत्ति थाय
नहि, चैतन्यना आधारे तो वीतरागी आनंदनो अनुभव थाय छे. एकवार अंदरमां
ऊंडो ऊतरीने आवो अनुभव करी जो...तने मोक्षनुं परम सुख तारामां ज देखाशे.
[गुरुदेव आंकडिया पधारतां जनताए उमंगथी लाभ लीधो हतो. रळियामणुं
जिनमंदिर भक्तजनोथी ऊभराई गयुं हतुं.; आनंदपूर्वक शांतिनाथ भगवान वगेरे
भगवंतोना दर्शन–पूजन–भक्ति–कर्यां; गुरुदेवना सुहस्ते स्वस्तिक करावीने जिनमंदिर
उपर नवो ध्वज चडाव्यो. आंकडियाथी संध्या समये गीरनारना मनोहर दर्शन थाय छे.
फागण सुद सातमे आंकडिया मंदिरमां उपर बिराजमान शांतिनाथ भगवाननी मनोहर
प्रतिमानी प्रतिष्ठाने पचीसमुं वर्ष बेठुं.]
–: भगवाननो सीधो सन्देश :–
मने जे आ शुद्धआत्माना स्वसंवेदनरूप अनुभूति थई ते हु ज
छुं. पर्याय अंदर गई ने शुद्धस्वरूपनो आनंदमय अनुभव थयो, ते हुं
ज छुं. ते अनुभूतिथी जुदो आत्मा नथी. सम्यग्दर्शन आवा
अनुभवपूर्वक थाय छे.
आवी अनुभूति करवी ते भगवाननो सीधो संदेश छे. आवी
अनुभूति करी त्यारे साचो आत्मा द्रष्टिमां–ज्ञानमां–अनुभवमां
आव्यो, ने तेणे भगवाननो सीधो संदेश झील्यो. आवी अनुभूति
वगर आत्मा लक्षगत थतो नथी, ने आत्मा लक्षगत थया वगर
भगवानना संदेशने समज्यो केम कहेवाय? जेणे आत्मानी आवी
अनुभूति करी तेणे भगवानना संदेशने, भगवानना उपदेशने,
जिनशासनने जाण्युं.
वाह! अनुभुतिमां जे गंभीर तत्त्व–आव्युं ते हुं ज छुं;
अनंतगुणनी शुद्धतानुं वेदन एकसाथे ते अनुभूतिमां समाय छे.
चैतन्यराजा पोताना अनंत गुणना वैभवसहित स्वानुभूतिमां शोभे छे.
शिष्यने आत्मानी अनुभूति सिवाय बीजी कोई अभिलाषा
नथी. श्रीगुरुए आवो सरस, मोटो आत्मा कह्यो ते आत्मानो अनुभव
केम थाय–ए एक ज धगश छे, अने एनी रीत संतो बतावे छे.