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तेने भान थयुं के अरे, मारे जे वस्तुने प्राप्त करवी छे ते तो ‘ऊंची’ छे, आ
छायाथी ते वस्तु दूर छे–जुदी छे. साची वस्तुथी दूर रहीने हुं प्राप्तिनो उद्यम करुं ते
क्यांथी प्राप्त थाय? तेम सुखथी भरपूर एवी चैतन्यवस्तु अंतरमां छे; तेने बदले
परभावो अने संयोगो–के जेओ छाया जेवा छे, चैतन्यथी जुदा छे–दूर छे, तेनी
सामे जोये सत्य चैतन्यवस्तु प्राप्त थती नथी. पण ऊंची द्रष्टिवडे एटले के
शुद्धस्वभावनी द्रष्टिवडे ज साची चैतन्यवस्तु प्राप्त थाय छे. वस्तुथी दूर रहीने तेनी
प्राप्ति–अनुभूति केम थाय? माटे हे जीव! तुं परथी लक्ष हटावीने तारी स्ववस्तुमां
लक्षने जोड तो तने अपूर्व चैतन्यवस्तुना आनंदनो अनुभव तारामां ज थशे.
पकडवाथी चैतन्यवस्तु प्राप्त थती नथी. चैतन्यनी सन्मुखताथी ज चैतन्यनी प्राप्ति
थाय छे. जे चैतन्यनी जात होय तेना वडे ज चैतन्यनी प्राप्ति थाय; जे चैतन्यनी
जात न होय तेना वडे चैतन्यनी प्राप्ति न थाय.
कर्यो; ते आंटा मारी–मारीने थाक्यो पण एना हाथमां कांई न आव्युं. क्यांथी
आवे? साची वस्तु तो त्यां छे नहीं. जो ऊर्ध्वद्रष्टि करे तो साची वस्तु देखाय.
अधोद्रष्टिमां साची वस्तु देखाती नथी, मात्र तेनी छाया देखाय छे,–विभाव देखाय
छे. तेम राग छे ते कांई चैतन्य नथी, ते तो चैतन्यनी छाया छे; ते रागथी पार
एवी ऊर्ध्वद्रष्टि वडे साची चैतन्यवस्तु देखाय छे, ने साची वस्तुने देखतां ज
जीवने परमतृप्ति–शांति–आनंद थाय छे.
स्वरूप मान्युं तेथी ते कुवामां पडीने दुःखी थयो. तेम चैतन्यमूर्ति सिद्धराजा पोतानुं
साचुं स्वरूप भूल्यो ने रागादि परभावोरूप छायाने पोतानुं स्वरूप मानीने
भवना कुवामां पड्यो हतो. पण ज्यां पोताना साचा स्वरूपनुं तेने भान थाय छे
त्यां सिंह जेवा पोताना चैतन्य पराक्रमनी स्फुरणा वडे केवळज्ञान प्रगट करीने ते
त्रणलोकनो राजा थाय छे; पोताना अद्भुत चैतन्यनिधि आत्मवैभवनो स्वामी
थईने त्रणलोकमां सौथी श्रेष्ठपणे ते सिद्धराजा शोभे छे. जीव पोतानुं साचुं स्वरूप
समजतां सिंहराजमांथी सिद्धराज बनी जाय छे, पशुमांथी परमात्मा बनी जाय छे.