Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : चैत्र: २४९८
* मुंबईना एक बहेन लखे छे :–वांदरानी छाया उपर तराप मारतां सिंहने
कांई प्राप्त न थयुं, पछी ज्यां ‘ऊंची द्रष्टि’ करीने झाड उपर वांदराने जोयो त्यां
तेने भान थयुं के अरे, मारे जे वस्तुने प्राप्त करवी छे ते तो ‘ऊंची’ छे, आ
छायाथी ते वस्तु दूर छे–जुदी छे. साची वस्तुथी दूर रहीने हुं प्राप्तिनो उद्यम करुं ते
क्यांथी प्राप्त थाय? तेम सुखथी भरपूर एवी चैतन्यवस्तु अंतरमां छे; तेने बदले
परभावो अने संयोगो–के जेओ छाया जेवा छे, चैतन्यथी जुदा छे–दूर छे, तेनी
सामे जोये सत्य चैतन्यवस्तु प्राप्त थती नथी. पण ऊंची द्रष्टिवडे एटले के
शुद्धस्वभावनी द्रष्टिवडे ज साची चैतन्यवस्तु प्राप्त थाय छे. वस्तुथी दूर रहीने तेनी
प्राप्ति–अनुभूति केम थाय? माटे हे जीव! तुं परथी लक्ष हटावीने तारी स्ववस्तुमां
लक्षने जोड तो तने अपूर्व चैतन्यवस्तुना आनंदनो अनुभव तारामां ज थशे.
जेम पडछायाने पकडवाथी मूळवस्तु मळती नथी, तेम जडनी क्रियाने के रागने
पकडवाथी चैतन्यवस्तु प्राप्त थती नथी. चैतन्यनी सन्मुखताथी ज चैतन्यनी प्राप्ति
थाय छे. जे चैतन्यनी जात होय तेना वडे ज चैतन्यनी प्राप्ति थाय; जे चैतन्यनी
जात न होय तेना वडे चैतन्यनी प्राप्ति न थाय.
छायाने वांदरो समजीने सिंहे तो तेना फरता आंटा मारीने तेने पकडवा प्रयत्न
कर्यो; ते आंटा मारी–मारीने थाक्यो पण एना हाथमां कांई न आव्युं. क्यांथी
आवे? साची वस्तु तो त्यां छे नहीं. जो ऊर्ध्वद्रष्टि करे तो साची वस्तु देखाय.
अधोद्रष्टिमां साची वस्तु देखाती नथी, मात्र तेनी छाया देखाय छे,–विभाव देखाय
छे. तेम राग छे ते कांई चैतन्य नथी, ते तो चैतन्यनी छाया छे; ते रागथी पार
एवी ऊर्ध्वद्रष्टि वडे साची चैतन्यवस्तु देखाय छे, ने साची वस्तुने देखतां ज
जीवने परमतृप्ति–शांति–आनंद थाय छे.
* जेम वार्तानो सिंह ए जंगलनो राजा छे, तेम हे जीव! तुं त्रणलोकमां सौथी महान
एवो चैतन्यराजा छो. सिंहराजा पोतानुं साचुं स्वरूप भूल्यो ने छायाने पोतानुं
स्वरूप मान्युं तेथी ते कुवामां पडीने दुःखी थयो. तेम चैतन्यमूर्ति सिद्धराजा पोतानुं
साचुं स्वरूप भूल्यो ने रागादि परभावोरूप छायाने पोतानुं स्वरूप मानीने
भवना कुवामां पड्यो हतो. पण ज्यां पोताना साचा स्वरूपनुं तेने भान थाय छे
त्यां सिंह जेवा पोताना चैतन्य पराक्रमनी स्फुरणा वडे केवळज्ञान प्रगट करीने ते
त्रणलोकनो राजा थाय छे; पोताना अद्भुत चैतन्यनिधि आत्मवैभवनो स्वामी
थईने त्रणलोकमां सौथी श्रेष्ठपणे ते सिद्धराजा शोभे छे. जीव पोतानुं साचुं स्वरूप
समजतां सिंहराजमांथी सिद्धराज बनी जाय छे, पशुमांथी परमात्मा बनी जाय छे.