Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र: २४९८ आत्मधर्म : ३७ :
* चैतन्यरसनी मधुर चर्चा *
[सौने गमे एवा विविध वचनामृत]
• हे विचारवंत! दुःखथी भरेला आ संसारमां जो तुं सुखने चाहे छे तो चैतन्य
सुखथी भरेला आत्मानी परमप्रीति करीने तेमां तारी बुद्धि जोड....तेमां तने एवुं
अजोड सुख अनुभवाशे के जेमां दुःखनो लवलेश नथी.
• एकवार अंदर ऊतरीने जो तो खरो....संसारमां कदी तें न जोयुं होय, न चाख्युं
होय, एवुं कोई अचिंत्य सुख तने तारामां अनुभवाशे; अनंतकाळनी तारी
अशांतिनो अंत आवी जशे ने आत्मानी परम शांतिनो तने स्वाद आवशे.
• ज्ञानीओ तेने ज डाह्या कहे छे के जे पोतानी बुद्धि आत्मामां जोडे. महा आनंदमय
पोतानी स्ववस्तुने देखावी ते ज साचुं डहापण छे. पोतानी वस्तुने जे न देखे, ने
बहारमां बुद्धि भमावीने दुःखी थाय एने ते डाह्यो कोण कहे?
• अहा, ज्ञान–आनंदथी भरेला चैतन्यनुं अस्तित्व एटलुं मोटुं महान छे, के तेमांथी
प्रगटेली शांतिना एक अंशनी पण तूलना त्रणलोकनो वैभव करी न शके.
त्रणलोकनी बाह्य–विभूति भेगी थाय तोपण चैतन्यनी शांतिनो अंश ते आपी न
शके, आवी शांतिनो आखो दरियो चैतन्यना महान अस्तित्वमां भर्यो छे. एकली
शांति नहि, एवा एवा तो अनंत गुणना दरिया आत्माना अस्तित्वमां समाय छे.
अरे, आवडा मोटा पोताना अस्तित्वने तूच्छ राग जेटलुं मानवुं–ए तो केवी भूल!
भाई, तारा मोटा अस्तित्वने तुं जाण.
• बापु! आवडुं मोटुं तारुं अस्तित्व जैनशासनना वीतरागी संतो तने बतावे छे.
अंतर्मुख बुद्धिवडे आवडो मोटो आत्मा पोताने अनुभवगम्य थाय छे.–पण तुं
जगतनी रुचि छोडीने आत्मानी परम प्रीति कर, त्यारे तारा परिणाम
अंर्तस्वभावमां वळे अने तारो आत्मा तने साक्षात् स्वानुभवगम्य थाय. अनंता
जीवो आ रीते आत्माने स्वानुभवगम्य करी–करीने सिद्धिने पाम्या छे, ने ताराथी
पण थई शके तेवुं छे.
• अरे, आवो सरस मजानो, सुखथी भरेलो तारो आत्मा, एनी रुचि तुं केम नथी
करतो? ने दुःखरूप संसारभोगोने तुं केम ईच्छे छे? तारा सुखना भंडारने छोडीने
दुःखना दरिया तरफ तुं केम दोडे छे?