Atmadharma magazine - Ank 342
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९८ आत्मधर्म : १ :
ज्ञानरसनुं घोलन
साधकने अंतरमां ज्ञानरसनुं घोलन सदाय
चालतुं होय छे. ज्ञानरस, आत्मरस, एटले
चैतन्यरसना आनंदनो रस, तेमां रागनो जराय
स्पर्श नथी, राग साथे एने कांई लागतुं–वळगतुं नथी.
ज्ञायकस्वभावमां ज्ञानपरिणतिनी एकता थई, ने
ज्ञानरस रागथी भिन्नपणे स्वादमां आव्यो, ते
ज्ञानमां केवळज्ञान आवी गयुं, तेमां मोक्षमार्ग आवी
गयो, तेमां आखो ज्ञानस्वभाव आवी गयो.
स्वसन्मुख थईने आत्मा पोते ज्ञानरसरूप परिणम्यो
तेमां आत्मानुं बधुं माप आवी गयुं; अनंतगुणोनो
स्वाद तेमां समाई गयो. ते ज्ञाननी जातवडे
केवळज्ञाननो ने अखंडस्वभावनो निर्णय आवी गयो.
ए निर्णयनी ताकात रागमां–विकल्पमां नथी.
विकल्पनो एक अंशपण ज्ञानरसमां समातो नथी.
विकल्पने व्यवहार गणीने तेने जेओ आत्माना
अनुभवनुं साधन बनाववा मांगे छे तेओ मोटी
भूलमां पडेला छे. बापु! तारा ज्ञाननी जात विकल्पथी
तद्न जुदी ज छे. एनुं भेदज्ञान करीने रागथी जुदो
पड, तो ज्ञानवडे आत्मानी साधना थाय भाई,
ज्ञानस्वभावनो अनुभव तो ज्ञानवडे ज थायने!–
कांई रागवडे ज्ञाननो अनुभव न थाय. जेम जड अने
चेतननी जात ज जुदी छे, तेम राग अने ज्ञाननी जात
ज जुदी छे. रागथी भिन्न एकला चैतन्यना
अतीन्द्रिय ज्ञानरसना घोलनमां ज मोक्षनो मार्ग
समाय छे. अहा, ज्ञानरसनो स्वाद अतीन्द्रिय
आनंदथी भरेलो छे,–आत्मानो आवो स्वाद आवे
त्यारे मोक्षमार्ग खूले ने त्यारे जीव धर्मी थाय.
ज्ञानरसना घोलनमां परम अद्भुत शांति छे.
[राजकोटमां अंतरना घोलनना गुरुदेवना उद्गार]