Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : १३ :
गयुं छे. विकल्पना काळे तो ज्ञानरसपणे ज रहे छे, ते विकल्पमां जरापण खेंचातुं नथी. अहो,
ज्ञानना रसीला जीवोए चैतन्यनो आवो मार्ग जोयो छे. वीरनाथे आवो मार्ग बताव्यो छे.
वीरनाथना मार्गनां आ मधुरां वहेण छे.
अरे जीव! एकवार सांभळ तो खरो आ वीरनी वाणी! वीरनाथनो आ सन्देश छे के
तारो आत्मा ज एवो आनंदस्वरूप छे के जेने जाणतां ज तेमां तन्मय थईने परमसुखनो
स्वाद आवे छे. परनी सन्मुख थईने परने जाणतां कांई सुखनुं वेदन थतुं नथी. आत्मा ज
पोते एवो सारभूत छे के जेने जाणतां सुख थाय छे. आवा आत्माने लक्षमां लेतां विकल्पोनी
जाळ तूटी जाय छे. ज्ञानने ज्ञानरसमां आववुं ए तो सहज छे, विकल्पनो बोजो तेमां नथी.
आवा ज्ञानरसमां आवतां हे जीव! तने आनंद आवशे. जेम पाणीने ढाळ मळतां ते
सहजपणे झडपथी तेमां वळी जाय छे, तेम आत्मानी चैतन्यपरिणतिने भेदज्ञानरूपी ढाळ
मळ्‌यो त्यां विकल्पना वनमां अटकवानुं मटी गयुं ने सहजपणे अंतरमां वळीने पोताना
आनंद–समुद्रमां ते मग्न थई. अहो, आ तो सम्यग्द्रष्टिए पोतामां जोयेलां मार्ग छे...ते
अंतरमां गंभीर मार्गमां जवुं तेने सुगम थई गयुं छे.
वीरनो मार्ग ए तो अंतरनो गंभीर मार्ग छे. पुण्य–पाप तो उपर–उपरनी छीछरी
वृत्तिओ छे; तेनाथी पार थईने, एटले के विवेक वडे विकल्पथी भिन्न आत्माने जाणीने,
गंभीर चैतन्यस्वरूपमां ऊतरतां पोताना चैतन्यरसनो महासमुद्र प्राप्त थाय छे. अहो!
चैतन्यरसना रसिकजनो! आवा तमारा शांतरसना समुद्रने देखो. एने देखतां विकल्पोनां
मोजां ठरी जशे. चैतन्यनो रस लागे तेने विकल्पनो रस रहे नहि, विकल्प साथे ज्ञाननां
मींढळ ते बांधे नहि. जेम सती पोताना स्वामी सिवाय बीजानुं मींढळ बांधे नहीं, तेम
साधकधर्मात्मा चैतन्यरसनी परम प्रीतिथी कहे छे के–
थयो रसिक हुं मारा चैतन्यनाथनो रे...
रागनो रस हवे हुं नहीं करुं रे...
लगनी लागी मारा चैतन्यदेवनी,
हवे विकल्पनां मींढळ नहीं बांधुं रे...
अंतरना चैतन्यमां वळेलुं ज्ञान तो महा गंभीर छे; नयपक्षना विकल्पोमां एवी
गंभीरता नथी के अंतरना आत्माने देखी शके. धर्मीनी द्रष्टि अंतरना चैतन्यने