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छालथी जुदो छे, तेम चैतन्यमूर्ति आनंदरसथी भरेल श्री फळ एवो आत्मा नोकर्म
द्रव्यकर्म–भावकर्मथी जुदो, शुद्ध ज्ञानने आनंदनो गोळो छे. स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी मारा
आवा आत्माने हुं जाणुं छुं. ईन्द्रियज्ञाननो जे विषय नथी एवा मारा अतीन्द्रिय
आत्माने मारा सीधा स्वसंवेनदथी हुं अनुभवुं छुं. आवा आत्माना अनुभवमां कोई
रागादि भावो नथी, कोई भंग–भेदना विकल्पो नथी; विकल्पना स्वादथी पार अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद तेमां आवे छे.
स्वभाववाळुं, तेने ईन्द्रियविषयोमां सुख केम होय? पोते चेतनतत्त्व, जडमां सुख माने–
–ए तो उन्मत्त जेवुं छे. नदी किनारे बेठेलो उन्मत्त माणस त्यां आवता–जता माणसोने
तथा वाहनोने पोतानां मानीने दुःखी थाय, तेम अज्ञानीजीव मोहथी उन्मत्त छे ते
रागादिपरभावोरूपे पोताने वेदे छे तथा जड संयोगने पोताना मानीने दुःखी थाय छे.
हवे धर्मी थयेलो जीव जाणे छे के अरेरे, पूर्वे मोहथी उन्मत्त थईने में पण अनंतकाळ
दुःखमां गुमाव्यो. पण हवे वीतरागीगुरुना उपदेशथी मारुं शुद्ध स्वरूप अतीन्द्रियज्ञानवडे
में जाणी लीधुं छे, मारा परम सुखनो स्वाद में चाख्यो छे.
हवे श्री ज्ञानीगुरुना उपदेशथी हुं पोते सावधान थईने मारुं शुद्ध स्वरूप समज्यो, महान
ज्ञानप्रकाश मने प्रगट्यो. जुओ, बंने वात करी; अज्ञानदशामां मोह निमित्त हतो, ने
ज्ञानदशा थवामां श्री वीतरागीगुरु निमित्त छे; बंने दशामां निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं, पण
बंने दशामां हुं पोते मारी अवस्थाथी तेवो थयो हतो; पहेलांं अप्रतिबुद्ध पण हुं ज हतो,
हवे अज्ञान टाळीने प्रतिबुद्ध पण हुं ज थयो.
राग साथेनी एकता तोडीने ज्ञान साथे एकता जेमने प्रगटी छे, एवा विरक्त गुरुए