Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : ३१ :
ज्ञानी पोते आत्माने अनुभवीने जे वर्णन करे ते तो जोयेली वस्तुनुं यथार्थ वर्णन
छे. अनुभव वगर बीजा अज्ञानीओ आत्मानो जे उपदेश आपे ते यथार्थ होय नहि. जेने
आत्मा समजवानी धगश हती एवा शिष्यने पोतानी साची तैयारी थईने सामे
निमित्तरूपे अनुभवी गुरुनो उपदेश मळ्‌यो. उपदेश मळतां ज ते झीलीने, आत्माना
स्वभावमां वळी गयो, त्यां पोताना आत्माने ज परमेश्वररूपे देख्यो.
जुओ, शिष्य उपदेश सामे जोईने बेसी न रह्यो, गुरु सामे के शुभविकल्प सामे
जोईने बेसी न रह्यो; पण परनुं लक्ष छोडीने अंतरमां वळ्‌यो. श्रीगुरुए उपदेशमां पण
एम ज कह्युं हतुं के अमारी सामे जोईने रागनी शुभवृत्ति ऊठे ते पण तारुं स्वरूप नथी,
ते रागथी पण पार ज्ञानस्वरूप तारो आत्मा छे, तेने ध्येय बनावजे. रागथी भिन्न पडीने
अंतर्मुख चिदानंद भगवानने स्वानुभवमां लीधो तेणे गुरुनी आज्ञा अने गुरुनो उपदेश
स्वीकार्यो. तेने रागनी साथे एकता तूटीने आत्माना आनंदनो स्वाद आव्यो. हवे
रागादिनी वृत्तिओ ऊठे ते ज्ञानमां एकपणे भासती नथी पण भिन्नपणे ज भासे छे. –
आ रीते शुद्धचेतनारूपे ज ज्ञानीने पोताना स्वरूपनुं संचेतन छे.
अरे, तारा अंतरमां तारा प्रभुने शोध. ताराथी जुदो बीजे क्यांय तारो प्रभु नथी,
पूर्ण ज्ञानआनंदरूपे बिराजमान प्रभु तुं ज छो. तारी चेतना पासे राग तो मृतक जेवो छे.
जेम आ जड शरीर ते चेतना वगरनुं होवाथी तेने मृतककलेवर कहेवाय छे तेम
रागादिभावो पण खरेखर चेतना वगरना छे तेथी मृतककलेवर ज छे. अरे, चेतनप्रभु
पोताने भूलीने मृतककलेवरमां मोही पड्यो. पण हवे श्रीगुरु पासेथी सांभळीने ज्यां
आत्मानुं सम्यक् स्वरूप समजीने स्वसंवेदनमां लीधुं त्यां आत्मा क्षणमात्रमां जागी ऊठ्यो
के अरे, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा; मारा स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी ज जणायो ते हुं छुं;
रागवडे मारुं ग्रहण थई शके नहि, ने मारा चैतन्यना स्वसंवेदनमां राग आवे नहि.
जुओ, सम्यग्द्रष्टिने आवा चैतन्यनुं स्वसंवेदन होय छे. मोटा गणधरदेव हो के
नानुं देडकुं हो, के आठ वर्षनी बाळा हो––जे कोई सम्यग्द्रष्टि छे ते दरेकने पोतानुं चैतन्यनुं
आवुं स्वसंवेदन होय छे. जेवो आत्मा गणधरदेवनी प्रतीतमां आव्यो तेवो ज आत्मा
मारी प्रतीतिमां आव्यो छे–एम धर्मी निःशंक छे. धर्मीना अंतरमां तो भगवान बेठा छे.
आवो सम्यग्द्रष्टि जीव ज्ञानथी भिन्न कोई पण परभावने तन्मयपणे करतो नथी, पोताना
स्वरूपने ते रूपे मानतो नथी; चेतनाने रागथी जुदी ने जुदी अनुभवे