Atmadharma magazine - Ank 342a
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : ३९ :
जीवोने आपे छे. अहो, आत्माना अनुभवनो आ ऊंचो माल भरतक्षेत्रना भव्यजीवोने
माटे कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहमांथी लाव्या छे. ते ज आ सन्देश छे. अहा, आ तो आत्माना
हित माटे तीर्थंकर भगवानना सन्देश छे. एकवार तुं रागथी भिन्न पडीने चैतन्यना श्रद्धा–
ज्ञान करीने, तीर्थंकर भगवानना आ कहेणनो स्वीकार कर.
अरे, अरागी जिनस्वरूप आत्मा, तेने रागमां मजा मानवी–ए शोभतुं नथी.
चैतन्यनी शांति रागमांथी न पाके; चैतन्यतत्त्व पोते शांत, राग वगरनुं छे. रागना बावळ
उपर धर्मना आंबा न पाके. रागथी तो चारगतिनां फळ पाके, शुभरागना पुण्यथी स्वर्ग
पाके–पण तेमां धर्मनां फळ न पाके, तेमां चैतन्यनी शांति के आनंद न आवे.
ज्ञानना चेतनभावना वेदनमां जे शांति छे ते शांति रागना वेदनमां
नथी, रागनुं वेदन कलेशरूप छे. आ रीते ज्ञानना वेदनथी रागनुं वेदन तद्न
जुदी जातनुं छे, एटले बंनेनी भिन्नता छे.
–: तीन बात:–
जे जीव पोतामां रहेला निजगुणने देखतो नथी अने बीजा पासेथी गुणप्राप्तिनी
आशा राखे छे ते पराधीनद्रष्टिवंत मिथ्याद्रष्टि छे.
–अने–
जे जीव पोतानी भूलने नथी देखतो ने पोताना दोष बीजा उपर ढोळवानी चेष्टा
करे छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
–पण–
जे जीव सर्वगुणसम्पन्न आत्माना निजगुणने नीहाळे छे, अने ते गुणथी विपरीत
भावरूप निज दोषोने पण देखे छे, ते जीव गुणभावना वडे दोषने दूर करे छे; ते
सम्यग्द्रष्टि जिनमार्ग उपासक छे.