: प्र. वैशाख : २४९८ “आत्मधर्म” : ३९ :
जीवोने आपे छे. अहो, आत्माना अनुभवनो आ ऊंचो माल भरतक्षेत्रना भव्यजीवोने
माटे कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहमांथी लाव्या छे. ते ज आ सन्देश छे. अहा, आ तो आत्माना
हित माटे तीर्थंकर भगवानना सन्देश छे. एकवार तुं रागथी भिन्न पडीने चैतन्यना श्रद्धा–
ज्ञान करीने, तीर्थंकर भगवानना आ कहेणनो स्वीकार कर.
अरे, अरागी जिनस्वरूप आत्मा, तेने रागमां मजा मानवी–ए शोभतुं नथी.
चैतन्यनी शांति रागमांथी न पाके; चैतन्यतत्त्व पोते शांत, राग वगरनुं छे. रागना बावळ
उपर धर्मना आंबा न पाके. रागथी तो चारगतिनां फळ पाके, शुभरागना पुण्यथी स्वर्ग
पाके–पण तेमां धर्मनां फळ न पाके, तेमां चैतन्यनी शांति के आनंद न आवे.
ज्ञानना चेतनभावना वेदनमां जे शांति छे ते शांति रागना वेदनमां
नथी, रागनुं वेदन कलेशरूप छे. आ रीते ज्ञानना वेदनथी रागनुं वेदन तद्न
जुदी जातनुं छे, एटले बंनेनी भिन्नता छे.
–: तीन बात:–
• जे जीव पोतामां रहेला निजगुणने देखतो नथी अने बीजा पासेथी गुणप्राप्तिनी
आशा राखे छे ते पराधीनद्रष्टिवंत मिथ्याद्रष्टि छे.
–अने–
• जे जीव पोतानी भूलने नथी देखतो ने पोताना दोष बीजा उपर ढोळवानी चेष्टा
करे छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
–पण–
• जे जीव सर्वगुणसम्पन्न आत्माना निजगुणने नीहाळे छे, अने ते गुणथी विपरीत
भावरूप निज दोषोने पण देखे छे, ते जीव गुणभावना वडे दोषने दूर करे छे; ते
सम्यग्द्रष्टि जिनमार्ग उपासक छे.