: ८ : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
भूमिकाअनुसार जे जेम वात होय तेम समजवी जईए. श्रावकने
रागरहित आत्मानी द्रष्टिरूप सम्यक्त्व पण वर्ते छे, ने साथे शुभराग
पण वर्ते छे, ते रागने कारणे पूजा–भक्ति–दान–स्वाध्याय वगेरे भाव
आवे छे ने अशुभथी बचवा ते शुभने कर्तव्य पण कहेवाय छे. पण ते
रागनी हद पुण्यबंध जेटली छे, ए कांई मोक्षनुं साधन नथी–एम
धर्मीने भान छे.
२७ मोक्षनो मार्ग सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते वीतरागभाव छे, आवो
मोक्ष मार्ग जेणे जाण्यो छे, अंशे प्रगट कर्यो छे तेनी आ वात छे. जे
सम्यग्दर्शनादि निश्चयमोक्षमार्ग छे ते तो वीतरागभाव छे, ने तेनुं फळ
मोक्ष छे. तेनी साथे शुभरागादि जे व्यवहारमोक्षमार्ग छे तेनुं फळ शुं
छे? –तेनुं फळ तो स्वर्गादि संसार छे, ते तेने खरेखर मोक्षमार्ग केम
कहेवाय? मोक्षमार्ग तो एक ज छे बे नथी. वीतरागभावरूप एक ज
मोक्षमार्ग छे वीतरागभाव ते एक मोक्ष मार्ग, ने शुभराग ते बीजो
मोक्षमार्ग, एम मोक्षमार्ग बे नथी. वीतरागभाव ते मोक्षमार्ग छे, ने
राग ते मोक्षमार्ग नथी. , एम मोक्षमार्ग एक ज छे.
२८ आ ज्ञायकभावरूप आत्मतत्त्व छे तेने, परद्रव्यना भावोथी भिन्नपणे
देखतां ते शुद्धपणे देखाय छे; अने त्यारे तेने देखनारी पर्याय पण शुद्ध
थाय छे...... एटले कषायचक्र मटी जाय छे, ज्ञान तेनाथी छूटुं पडी जाय
छे. पर्यायमां कषायचक्रथी ज्ञान छूटुं पड्या वगर ‘चैतन्यतत्त्व शुद्ध छे’
एवी ओळखाण थई शके नहि. आ रीते शुद्धद्रव्यने देखतां पर्याय पण
शुद्ध थयेली वर्ते छे.
२९ कषायचक्रनुं मटवुं कठण छे, –पण अशक््य नथी, केमके
शुद्धद्रव्यस्वभावनी सन्मुख थतां कषायचक्र मटी जाय छे. ज्ञाननुं स्वरूप
स्वभावथी ज सर्वे परभावोथी रहित छे; एटले ज्ञानस्वभावनो
अनुभव थतां सर्वे परभावोनो ध्वंस थई जाय छे. ज्ञानस्वभाव तो
रागादि परभाव वगरनो छे ज, तेनी स्वसन्मुख परिणति पण राग
वगरनी थई त्यां तेणे रागने छोडया–एम कहेवामां आवे छे. बाकी
परमार्थे ज्ञानमां कांई रागनुं कतृत्व नथी के ज्ञान तेने छोडे. ज्ञान तो
स्वभावथी ज राग वगरनुं छे, ज्ञानमां रागनो प्रवेश नथी. ज्ञान
ज्ञानरूप थयुं ते तो विकारथी छूटुं ने छूटुं छे.
३० जेनुं ज्ञान अंर्तस्वभावसन्मुख थयुं नथी ने कषायचक्रमां (पुण्य–पापमां)
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