पात्रता जोईए.
मुनिओ ऊतरीने तेनी पासे आव्या, ने चैतन्यनो उपदेश देतां कह्युं के अरे आत्मा! तुं
दशमा भवे जगतनो नाथ तीर्थंकर थवानो छो. तरत सिंहना परिणाम पलटी गया,
जातिस्मरण थयुं, आंखमांथी आंसुनी धारा वहेवा लागी, ने अंदर ज्ञायकभावनी वीणा
एवी झणझणी ऊठी के त्यां ने त्यां ज ते आत्मा सम्यग्दर्शन पाम्यो. पछी मुनिओनी
अपार भक्ति करी, ने आत्माना अंदरना वेदनपूर्वक आहार छोडीने संथारो कर्यो.
सिंहनो आत्मा पण आवुं एक क्षणमां करी शके छे; तेम दरेक आत्मामां आवी ताकात
छे. पात्र थईने जे समजवा मांगे ते क्षणमां समजीने सम्यक्त्वादि पामी शके छे.
सेवे छे त्यारे ते सम्यक्त्वादि शुद्धभावरूपे परिणमे छे, अने त्यारे ते आत्माने ‘शुद्ध’
कहीए छीए. आवो ज्ञायक तो पहेलांं पण हतो ज, तेनी खबर न हती, एटले पोताने
अशुद्धपणे अनुभवतो हतो. हवे तेनुं भान करतां शुद्धपणे ते अनुभवमां आव्यो.
ज्ञायकभावनी आवी उपासना सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, अने आवी उपासना ते ज
सम्यग्दर्शननो उपाय छे. अखंडस्वभावनी सन्मुख थया विना तेना आनंदनो नमुनो
आवो नहि; अने आनंदना अंशना वेदन वगर ‘आखो स्वभाव आवो आनंदरूप छे–
आवो हुं छुं’–एवी अखंडस्वभावनी सम्यक्प्रतीत थाय नहि; हुं शुद्ध छुं’ एम एणे
जाण्युं क््यांथी? शुद्ध छुं–एम स्वसन्मुख थईने जाणनारनी तो दशा ज पलटी जाय छे.
स्वभाव तो पूरो भर्यो छे. ते स्वभावनो भरोसो करतां परमांथी परिणामनी लीनता
छूटीने स्वमां परिणाम एकाग्र थाय छे ने अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदरूप पोते थई जाय छे.
आवी दशारूपे परिणमेला आत्माने ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.