Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : २५ :
कोण छे तेने लक्षमां लईने तेनुं स्मरण करवुं ते मंगळ छे. आत्मा पोते चैतन्य
लक्ष्मीवाळो भगवान छे. पोतानुं भगवानपणुं भूलीने जे सुख माटे परवस्तुनी भीख
मांगे छे ते भीखारी छे. मारा सुख माटे मारे पैसानी–खोराक वगेरेनी जरूर पडे एम
माननार जीव भीखारी छे. बापु! तारो आत्मा पुण्य–पाप वगरनो स्वयं आनंदस्वरूप
छे–तेनो स्वाद लेतां तने परमसुख थशे. आवा आत्माने ओळखतां आनंद मळे ने दुःख
टळे–ते ज मंगळ छे.
बपोरना प्रवचनमां समयसारनी चोथी गाथा द्धारा चैतन्यतत्त्वनी प्राप्तिनुं
दुर्लभपणुं समजावतां कह्युं के, आ जीवे पूर्वे अनादिकाळथी रागनी ज कथा सांभळी छे
ने तेनो ज अनुभव कर्यो छे; पण पुण्य अने पाप ए बंनेथी पार एक चैतन्य चीज
अंदरमां छे, तेनी वात पूर्वे कदी प्रेमथी सांभळी नथी; अने एवा चैतन्यतत्त्वनो उपदेश
करनारा ज्ञानी पण जगतमां बहु विरल छे.
पाप करीने नरकमां जीव अनंतवार गयो, ने पुण्य करीने स्वर्गमां तो एनाथीये
वधुवार गयो;–पाप अने पुण्य करतां तो जीवने आवडे छे; पण तेमां जीवनुं कल्याण
जराय न थयुं. पापनो अशुभराग, के पुण्यनो शुभराग, ए बनेनुं फळ दुःख छे, संसार
छे, तेमांथी एकेयमां शांति नथी, कल्याण नथी. ते बंनेथी जुदी जातनुं चैतन्यतत्त्व छे
तेनी वात जीवे कदी पूर्वे ‘सांभळी नथी.. ’
सांभळी नथी–एम केम कह्युं? शब्दो भले काने पड्या, पण अंदर एना भावमां
रागथी छूटा चैतन्यतत्त्वनुं भासन तेणे न कर्युं, तो तेणे चैतन्यनी वात खरेखर
सांभळी ज नथी. सांभळ्‌युं खरेखर त्यारे कहेवाय के अंदर तेवो भाव पोतामां प्रगट
करे.
अहो, अरिहंतोए आ आत्माने ‘भगवान’ कहीने संबोध्यो छे. भगवान्!
तारो ज्ञानस्वभाव जगतमां महिमावंत छे. आवा स्वभावने तुं रागमां भेळसेळ न
कर. रागनी जातथी तारी चैतन्यजात तद्न जुदी छे. अरे, एकवार आवा तत्त्वने
लक्षमां तो ले. एने लक्षमां लेतां भवथी तारा नीवेडा आवी जशे. बाकी चैतन्यना
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूपी दीवडा वगर, शुभरागनां एकला घडाथी कांई तारा आत्मामां
धर्मना अजवाळा नहि थाय राग नाश थई जाय तोपण तारो चैतन्यदीवडो झगमग
टकी रहेशे. अने अंदर चैतन्यना दीवडा वगर एकला रागवडे तारुं कांई कल्याण नहि
थाय. –आ रीते ज्ञान अने रागने (दीवो अने घटनी माफक) अत्यंत भिन्नता छे.