Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
ज्ञानगगनमां ऊडे छे, एटले रागादिनुं अवलंबन छोडीने, आकाश जेवा महान चैतन्य
गगनमां तेओ आनंदनथी ऊडे छे, आत्मानुं स्वसंवेदन करीने अल्पकाळमां मोक्ष पामे
छे. अने जेओ समयसार विपक्षी छे –शुद्धआत्मानो पक्ष तोडीने रागनो पक्ष करनारा
छे तेओ संसारनी चारगतिमां झूले छे. अहो, चैतन्यनो पक्ष कर्यो तेने रागनो पक्ष
छूटीने मोक्षसुखनी प्राप्ति थाय छे. आवा अद्वितीय–जगतचक्षु शुद्ध आत्मानुं लक्ष करवुं,
तेनुं स्मरण करवुं ते मंगळ छे.
प्रवचनमां समयसारनी ७४मी गाथा वंचाणी; तेमां भेदज्ञान थतांवेंत जीव
आस्रवोथी निवृत्त थई जाय छे–ते समजावुं. भेदज्ञान शुद्धात्मामां वळेलुं छे ते रागादिना
अभावरूप ज छे. शुद्ध आत्माना अनुभवरूप ज्ञान, अने रागथी भिन्न पडेलुं ज्ञान,
तेने काळभेद नथी. शुद्धात्माना अनुभवरूप जे ज्ञान छे ते पोते आस्रवोथी छुटुं पडेलुं
छे, तेथी तेने भावभेद नथी तेम काळभेद पण नथी.
भेदज्ञान थाय ने तेमां आस्रवनो (पुण्य–पापनो) अभाव न थाय एम बने
नहि. पुण्य–पापमां तन्मयपणे वर्ते तेने भेदज्ञान कहेवाय नहि, ते तो अज्ञान छे. जे
भेदज्ञान छे ते तो ज्ञानमय छे, तेमां रागादि कोई भावो नथी.
ज्ञान अत्यारे करे ने जीवने शांति पछी थाय–एम नथी. ज्ञान थयुं ते ज क्षणे
अपूर्व चैतन्यशांति भेगी ज थई, ने आकुळताथी ज्ञान छुटुं पडी गयुं. आत्मा अने
राग, ए बंनेनो स्वाद तद्न जुदो धर्मी जाणे छे. चैतन्यनो शांतरस चाख्यो ते जीव
कषायना रसने पोतामां भेळवे नहि. कषायो (पछी अशुभ होय के शुभ, पाप हो के
पुण्य) ते चैतन्यथी विरुद्ध जात छे एटले शांतिना घातक छे, चैतन्यनी साथे तेने मेळ
नथी. –आम अत्यंत भिन्नता जाणनार जीवने सम्यक्प्रकारे आस्रवोथी निवृत्ति थई
जाय छे.
जेम लाख ते झाडनो स्वभाव नथी पण झाडनी घातक छे, तेम रागादिभावो
चैतन्यनो स्वभाव नथी पण तेना घातक छे; जेम वाईनो रोग घडीकमां एकदम चडे ने
पाछो मंद पडी जाय, तेमां स्थिरता होती नथी; तेम पुण्य–पापना भावो ते चैतन्यनो
स्थिर भाव नथी, ते तो वाईना वेग जेवा छे; कोईवार शुभ, कोईवार अशुभ,
कोईवार तीव्रवेग, कोईवार मंदता, एम ते रागादिभावो अस्थिर अधु्रव छे.
चैतन्यभाव सदा निराकुळ शांतरसपणे धु्रव रहे छे. आत्मा चैतन्य चैतन्य–चैतन्य एम
सदा चैतन्यपणे धु्रव रहे छे, चैतन्य मटीने ते अन्यथा थतो नथी. आ रीते वाईना