Atmadharma magazine - Ank 343
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ३१ :
रोग जेवा आस्रवोथी चैतन्यनी भिन्नता छे. कोईपण कषायनो वेग जीव साथे टकी शके
नहि. क्षणमां पलटी जाय एवो तेनो अधु्रवस्वभाव छे. चैतन्यपणे जीव सदाय टके एवो
तेनो स्वभाव छे. कोई जीव चोवीस कलाक एकधारो क्रोध न करी शके, केमके क्रोध तेनो
स्वभाव नथी, अने चोवीस कलाक शांति राखवा मांगे तो राखी शके, केमके शांति तेनो
स्वभाव छे. गमे तेवो क्रोधी जीव चोवीस कलाक क्रोधमां नहि रही शके, ते क्षणमां पलटी
जशे. ए ज रीते शुभरागमां पण सदा टकी नहि शके, क्षणमां ते पलटी जशे. आ रीते
आस्रवो जीवस्वभावथी जुदा छे. चैतन्यभाव के जे आस्रव वगरनो छे, पुण्य–पाप
वगरनो छे, ते जीव छे; ते पोते सुखरूप छे, स्थिर छे, शरणरूप छे.
अहा, एकवार आवी भिन्नता ओळखे ते जीव कर्मोना आस्रवथी छूटो पडी
जाय, ने अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सहित विज्ञानघन थई जाय.
घडीकमां पूजा–भक्ति–दानना शुभ परिणाम होय, ने पछी अशुभ थई जाय,
त्यां अज्ञानीने एम लागे के अरे, मारा शुभभाव चाल्या गया! पण भाई! शुभभाव
तारा स्वभाव हता ज क््यां? तारो स्वभाव तो राग वगरनो चेतन छे, ते क््यांय
चाल्यो गयो नथी. ते चेतनस्वभावपणे तुं पोताने देख.
ए ज रीते अशुभ–पापभाव होय ने ते पलटीने शुभराग थाय त्यां अज्ञानीने
एम लागे के अहो! में घणुं कर्यु, पण अरे भाई! ते शुभ पण क््यां तारो स्वभाव छे?
जेम पाप तारो स्वभाव नथी तेम पुण्य तारो स्वभाव नथी; पाप ने पुण्य बंनेथी पार
तारो चेतनस्वभाव छे; ते स्वभावना अनुभव वडे ज आस्रवथी छूटी शकाय छे.
ज्ञाननुं वेदन थयुं ते ज क्षणे विकारनुं वेदन छूटी गयुं ज्ञानना वेदनमां विकारनुं वेदन
होई शके नहि.
चैतन्यनो धु्रवस्वभाव ते सिंधु छे, ने तेनी चैतन्यपरिणति ते बिंदु छे. सिंधु पण
तुं ने बिंदु पण तुं, –सिंधु अने बिंदु अने चैतन्यभावरूप छे, तेमां एककेयमां कषाय–
राग समाय नहि. बिंदुपण सिंधुनी जातनुं छे, विरुद्ध नथी. चैतन्यसमुद्र आत्मा, तेनुं
बिंदु नानामां नानो अंश पण चैतन्यरूप ज छे. चैतन्यनो अंश राग न होय. आ रीते
चैतन्यजातने परभावोथी जुदी अनुवभतां, आत्मा अने आस्रव छूटा पडी जाय छे.
कर्मना वादळां वींखाई जाय छे ने चैतन्यसूर्य ज्ञानप्रकाशथी खीली ऊठे छे. त्यां
आत्माने पोताने खबर पडे छे के आत्मानी परिणति आस्रवोथी छूटी गई ने शांत
चैतन्यभावरूप थई. आवा शांतस्वभावरूप आखो