ज्ञानस्वभाव उपर द्रष्टि करे छे त्यां पुण्य–पापथी तेनुं ज्ञान भिन्न पडी जाय
छे, ते भेदज्ञान छे तेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे.
भिन्नपणुं होवा छतां, ज्ञान अने रागनी एकतानो अनुभव ते संसारनुं कारण
छे ने बंनेनी भिन्नतानो अनुभव ते मोक्षनुं कारण छे. अरे, आवा मनुष्य
पणामां जो पोताना चैतन्यतत्त्वने ओळखीने जीवन सार्थक न कर्युं तो जीवने
मनुष्यपणुं पामीने शो लाभ? भाई, तारा सत्य तत्त्वने तुं रुचिमां ले..... तो
तारा भवना अंत आवी जशे.
आ रीते बंनेने अत्यंत जुदाई छे. एक दुःख, एक सुख, एक ज्ञानमय बीजुं
ज्ञानथी विपरीत, एक शुचिरूप, बीजुं अशुचीरूप; आवी अत्यंत जुदाई छे
आवी जुदाई जेओ नथी जाणता तेओ अनाथ छे, पोताना चैतन्य नाथनी
तेने खबर नथी. अहा, चैतन्यतत्त्व अनंत निजवैभवनुं नाथ छे; परना एक
अंशने पण ते पोतामां भेळवतो नथी. सम्यकत्व थतां पोताना आनंदना
नाथनी प्राप्ति थाय छे. ज्यां सुधी आनंदना नाथनी प्राप्ति नथी त्यां सुधी
जीव अनाथ छे. चैतन्यनुं भान थतां आत्मा अनाथ मटीने सनाथ थाय छे.
अहा, चैतन्यतत्त्वनी आवी सरस वात–जे समजतां संसारथी छूटकारो थाय ने
परम आनंद थाय–तेनो प्रेम कोने न आवे? बंधनथी छूटकारानो उत्साह कोने
न होय? भाई, आ तो छूटकारानो अवसर छे. संतो रागथी भिन्न तारुं
स्वरूप बतावीने तने मोक्षनो उपाय समजावे छे. तेने तुं उल्लासथी ग्रहण कर.
आवा आत्मस्वरूपना ग्रहणथी अंतरमां ज आनंदनी बीज ऊगी छे ते क्रमेक्रमे
वृद्धिगत थईने केवळज्ञानरूप पूर्णिमां थशे...... ते महा मंगळ छे.