: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ५३ :
वर्ते ज छे, ने ते ज्ञानमां बीजा कोई अंशना भेळवता नथी, माटे ज्ञानीनुं
ज्ञान सदा अलिप्त रहे छे.
सभाजन–हे स्वामी! आपनुं वात्सल्य घणुं प्रसिद्ध छे तो साधर्मीनुं वात्सल्य केवुं
होय ते संभळावो.
महाराजा–अहा, जेना देव एक, जेना गुरु एक, जेनो सिद्धांत एक, अने जेनो धर्म
एक–एवा साधर्मीओने संसारना कोई मतभेद आडा आवता नथी, तेथी
साधर्मीने देखीने तेने अंतरमां प्रसन्नता थाय छे; तेनी साथे धर्मचर्चा, तेनुं
अनेक प्रकारे आदरसन्मान, वात्सल्य करीने धर्मनो उत्साह वधारे छे;
साधर्मी प्रत्ये धर्मनो प्रेम उल्लसी जाय छे. जगतमां मोटामोटा हजारो मित्रो
मळवा सहेला छे, पण साचा साधर्मीनो संग मळवो बहु मोंघो छे.
सभाजन–अहा, साधर्मीप्रेमनी आवी सरस वात आपना श्रीमुखे सांभळीने अमने
घणी प्रसन्नता थाय छे.
सभाजन–महाराज! आवो सत्य जैनधर्म आपणने महाभाग्ये मळ्यो छे, ने
अत्यारे तो चोथो काळ वर्ती रह्यो छे..... अत्यारे एकवीसमा तीर्थंकरनुं
शासन चाले छे. घणा वर्षोथी अहीं भरतक्षेत्रमां तीर्थंकर नथी, तो हवे
बावीसमां तीर्थंकरनो अवतार क््यारे थशे?
महाराजा–अत्यारे चारे बाजुथी जे उत्तम चिह्ननो प्रगटी रह्या छे ते जोतां एम
लागे के हवे तुरतमां ज बावीसमां तीर्थंकरनो अवतार थशे..... एटलुं ज
नहि पण मारा अंतरमां धर्मभावनानुं जे महान आंदोलन चाली रह्युं छे ते
उपरथी एम लागे छे के जाणे तीर्थंकर भगवान मारा आंगणे ज पधार्या
होय!
(सभाजनो आ सांभळी हर्षित थाय छे.)
सभाजन–अहा महाराज! आप महा भाग्यवान छो....... आप चरम शरीरी छो,
ने आपना कुळमां चरमशरीरी तीर्थंकर अवतरशे..... आपणी द्धारकानगरी
धन्य बनशे.
सभाजन–मात्र द्वारकानगरी नहि, आपणे बधा पण धन्य बनशुं..... नानकडा
तीर्थंकरने नजरे नीहाळशुं...... ने एना दर्शनथी घणाय जीवो सम्यग्दर्शन
पामीने संसारथी तरी जशे.