: ५४ : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
सभाजन–अहा, एक नानकडा बाळकनी अंदर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, अवधिज्ञान
अने अतीन्द्रिय आनंद होय–ए एक....... आर्श्चयनी वात छे!
सभाजन–ए आर्श्चयनी वात होवा छतां सत्य छे. अने थोडा वखतमां आपणे
ज्यारे नानकडा नेमतीर्थंकरने शिवामातानी गोदमां खेलता नजरे जोईशुं
त्यारे आपणुं आश्चर्य मटी जशे, ने आत्मानी कोई अद्भूत अलौकिक
ताकात केवी छे तेनो आपणने साक्षात्कार थशे.
सभाजन–महाराज! घणा जीवो मोक्षमां गया छे, ने घणा जीवो मोक्षमां जशे, ते
बधा केवी रीते जशे?
महाराजा–सांभळो, जैनसिद्धांतनो त्रणेकाळनो नियम छे के–
भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्ध ये किल केचनं।
अस्यैव अभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचनं।
भेदज्ञाननी भावना ते ज मुक्तिनो उपाय छे.
सभाजन–आवुं भेदज्ञान कई रीते थाय?
महाराजा तमे बहु सारो्रप्रश्न पूछयो. भेदज्ञान माटे पहेलांं आत्मानी लगनी
लागवी जोईए. एवी लगनी लागे के आत्माना कार्य सिवाय जगतनुं
बीजुं कोई कार्य सुखरूप न लागे. चैतन्यतत्त्व ज्ञानी पासेथी सांभळीने
तेनो अपूर्व महिमा आवे के अहा, आवुं अचिंत्य गंभीर मारुं तत्त्व छे!
एम अंतरना तत्त्वनो परम महिमा भासतां परिणति संसारथी हटीने
चैतन्यसन्मुख थाय छे, ने शांतिना ऊंडाऊंडा गंभीर समुद्रने अनुभवीने
रागादिथी छूटी पडी जाय छे. आवुं भेदज्ञान थतां जीवना अंतरमां
मोक्षमार्ग खुल्ली जाय छे. माटे भेदज्ञाननी निरंतर भावना करवी जोईए.
भावयेत् भेदविज्ञानम् ईदं अच्छिन्नधारया,
तावत् यावत् परात् च्युत्या ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते.
सभाजन–देव! आवुं भेदज्ञान संसारना बधा जीवो केम नहीं पामता होय?
सभाजन–सांभळो, हुं कहुं–
बहु लोक ज्ञानगुणे रहित आ पद नहीं पामी शके,
रे! ग्रहण कर तुं नियत आ जो कर्म–मोक्षेच्छा तने.