: द्वि. वैशाख: २४९८ आत्मधर्म : ५५ :
सभाजन–खरूं छे, चैतन्यतत्त्व बहु गंभीर छे. लोको तो ए पामे के न पामे, आपणे
जगतनी चिंता छोडीने, पोते पोतानुं हित थाय तेम करी लेवानुं छे.
सभाजन–बराबर छे; आ जगत तो विचित्र छे, जगतनुं जोवा रोकाईए तो
आत्मानुं चुकी जवाय तेवुं छे. तीर्थंकरो जगतनुं जोवा रोकाया नहि, तेओ
तो अंतरना चैतन्यने साधीने पोताना मार्गे चाल्या गया.
सभाजन–अहा, आजे भेदज्ञाननी सरस चर्चा थई. आजनो दिव्य प्रकाश एवो
लागे छे के जाणे कोई तीर्थंकरनुं आपणी नगरीमां आगमन थई रह्युं होय!
शिवादेवी–मने पण आजनी चर्चामां तीर्थंकरनो महिमा सांभळीने बहु ज आनंद
थयो. मारुं अंतर पण कोई अनेरी प्रसन्नता अनुभवी रह्युं छे. आकाशमांथी
जाणे आनंद–आनंद वरसी रह्यो होय एवुं लागे छे.
सभाजन–अहा, जुओ..... जुओ! आकाशमांथी रत्नो वरसी रह्या छे, दिव्य वाजां
वागी रह्या छे; अरे! आ तो स्वर्गमांथी कुबेर आवी रह्या छे.......
कुबेर–आवीने कहे छे: अहो देव! आप धन्य छो. हे माता! आप धन्य छो. छ मास
पछी बावीसमां तीर्थंकर तमारी कुंखे अवतरशे तेथी ईन्द्रमहाराजे मने आ
भेट लईने आपनी सेवामां मोकल्यो छे. हे जगतपिता! हे जगतमाता!
तीर्थंकर परमात्मा जेना आंगणे पधारे एना महिमानी शी वात!
भगवानना पधारवाथी आपनो देह तो पवित्र थयो, ने आपनो आत्मा
पण सम्यक्त्वादिथी शोभी ऊठशे. अमे स्वर्गना देवो आपनुं सन्मान करीए
छीए. दिगुकुमारी देवीओ पण माताजीनी सेवा करवा माटे आवी छे.
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दिगकुमारी देवीओ आवीने शिवादेवी मातानी मंगलस्तुति करे छे–
धन्य धन्य छो हे माता! तुं जिनेश्वरकी माता......
नंदन तारा जयवंत छे त्रणलोकमां.
जे पुत्र तारो थाशे ते मुनि थई विचरशे,
केवळ पामी, ए भव्यजीवोने तारशे.
तारा उरमां रत्न बिराजे नेमतीर्थंकर प्रभु राजे,
मोक्षगामी, तुं माता जयवंत लोकमां,