आत्मा छे ते स्पष्ट–प्रकाशमान ज्योति छे; पोते पोताने प्रकाशवामां –
जाणवामां–वेदन करवामां कोई बीजानी के रागनी जरूर पडे नहि, स्वयं
पोते पोताने प्रत्यक्ष जाणे छे– एवो आत्मानो स्वभाव छे. आवा
एकस्वभावपणे आत्माने लक्षमां लईने अनुभव करतां ते शुभ–अशुभ
कषायो वगरनो शुद्धपणे अनुभवाय छे. आवो अनुभव करनार कहे छे
के ‘हुं एक ज्ञायकभाव छुं’ . चोथा गुणस्थाने मति–श्रुतना स्वसंवेदनमां
आत्मा प्रत्यक्ष थई गयो छे.
जे देखे छे तेने कषाय वगरनो परम शांतरसमां तरबोळ आत्मा
अनुभवाय छे; आवा आत्माने देखनारी द्रष्टिमां रागादि तो नथी, ने
पर्यायभेद के गुणभेदना विकल्पो पण तेमां नथी. आत्मा बंधायेलो हतो
ने छूटयो–एवा बंध मोक्षना विकल्पो शुद्धद्रव्यनी अनुभूतिमां नथी.
कांई रागनुं काम नथी, ते तो ज्ञाननुं काम छे. तो ज्ञानस्वरूप आत्मा
पोते पोतानुं स्वरूप केम न समजे? रागमां कांई स्वने के परने
समजवानी ताकात नथी केमके तेनामां चेतनास्वभाव नथी. आत्मा
पोते पोताना स्वरूपने कषायोथी भिन्न अनुभवीने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र पर्यायरूपे परिणमे छे, ते निर्मळपर्यायमां स्थित आत्माने
स्वसमय कहीए छीए; तेने ज शुद्ध कहीए छीए. रागादिमां पोतापणुं
जाणीने तेमां जे स्थित छे ते परसमय छे. रागमां स्थितने जडमां स्थित
कह्यो छे, केमके रागने चेतनपणुं नथी पण जडस्वभावपणुं छे.
ज्ञानथी विरुद्ध छे माटे ते जड छे. जे ज्ञानस्वभावने अनुभवमां ल्ये तेने
ज विकल्पनुं अचेतनपणुं खरेखर समजाय. विकल्पथी जुदा ज्ञानने जे
देखतो नथी तेने तो