: ६ : आत्मधर्म : द्वि. वैशाख: २४९८
निरंतर शुभ–अशुभभावनुं कषायचक्र ज चाल्या करे छे. अशुभमांथी
शुभ थाय ते कांई नवुं नथी; शुभ ने अशुभनुं कषायचक्र तो निगोदना
जीवने पण चाल्या ज करे छे. पण कषायोथी तद्न जुदी जातनो
ज्ञानस्वभाव छे तेने अनुभवमां लेवो ते अपूर्व छे.
१९ ‘ज्ञायकभाव’ मां सदा एकरूपता छे; शुभाशुभभावोमां अनेकरूपपणुं
छे, शुभ के अशुभ कोई भाव एकरूप कोई भाव एकरूप रहे नहि. आ
रीते अनेकरूप शुभाशुभभावनुं जे कषायचक्र छे ते रूपे एक ज्ञायकभाव
थतो नथी, ज्ञायकभावने सदा एक ज्ञायक भावपणुं ज छे. आवा
ज्ञायकभावपणे आत्माने उपासवो एटले के अनुभवमां लेवो–ते ‘शुद्ध’
छे. ज्ञाननां किरण सदा ज्ञानरूप छे, ज्ञाननां किरण रागरूप नथी. जेम
सूर्यनुं किरण प्रकाशरूप छे, कोलसारूप नथी, तेम चैतन्यसूर्य भगवान
आत्मा अनंत ज्ञानकिरणोथी ज प्रकाशमान छे, ते कषायनी कलुषतारूप
नथी. आ रीते कषायनी भिन्न आनंदस्वरूप ज्ञायकभावपणे जे पोताने
अनुभवे तेणे ज आत्माने ‘शुद्ध’ जाण्यो छे.
२० आप फत्तेपुर–प्रतिष्ठामहोत्सवनां प्रवचनो वांची रह्या छो. तेमां बपोरे
पद्मनंदी पच्चीसीमांथी ‘उपासक संस्कार (श्रावकाचार)’ अधिकार
वंचाय छे; एमां श्रावकनां आचारनुं वर्णन छे. आ शास्त्रने श्रीम्द
राजचंद्रजीए बहुमानथी ‘वनशास्त्र’ कह्युं छे; वनमां वसनारा दिगंबर
संते सिद्धभगवान साथे वातुं करतां करतां, ने अंदर सिद्ध जेवा
स्वरूपनो अनुभव करतां करतां आ शास्त्र रच्युं छे. तेमांथी आ छठ्ठो
अधिकार वंचाय छे.
२१ अध्यात्मनी द्रष्टिपूर्वक जेणे आत्माने रागथी जुदो जाण्यो छे, तेने पछी
श्रावकनी भूमिकामां केवो राग होय ने केवो राग छूटी जाय–तेनुं आ
कथन छे. शुभराग होय तेथी कांई ते मोक्षनुं कारण छे–एम ते
श्रावकधर्मी मानता नथी.
२२ अधिकारना प्रारंभमां मंगलाचरण तरीके भगवान ऋषभदेवने अने
श्रेयांसकुमारने याद कर्यां छे; आ भरतक्षेत्रमां असंख्य वर्षो बाद
भगवान ऋषभदेव मुनिधर्मना आद्य–प्रणेता थया, अने मुनिदशामां
तेमने आहारदान आपीने श्रेयांसकुमार दानधर्मना प्रणेता थया.
२३ मतिज्ञान–जातिस्मरणज्ञानमां कोई एवी अचिंत्य ताकात छे के सामा
जीवने शरीरादि पलटी गयुं होय छतां तेने देखीने निःशंक निर्णय करी
ल्ये के आ