: जेठ : २४९८ आत्मधर्म : २१ :
हम पूजादिको ही जीवनका उदेश मानते थे, और उसी उदशसे सब प्रवृत्ति करते
थे; स्वामीजीए ते प्रवृत्तिने नगण्य नथी कही; उससे पुण्य अवश्य होता है, परंतु जो
ध्येय मुक्ति प्राप्ति है उसके लिये ये पुण्य मार्ग नहीं है. पुण्य आपणने स्वर्गमां लई
जशे, परंतु शाश्वत सुखरूप मोक्षमां ते नहीं लई जाय. यह समझकर अपनेको
शाश्वतसुखकी द्रष्टि रखना चाहिए–ऐसा स्वामीजीका कहना हौ
आज यह द्रष्टि हमको स्वामीजीने दीं; यह द्रष्टि हमें भगवान महावीरको और
भगवान कुंदकुंदको समझनेमें सहायक होगी.
७० वर्षके मेरे जीवनमें ३०–३प वर्षसे में स्वामीजीनुं नाम सांभळ्युं अने तेमना
संबंधमां बधी परिस्थिति जाणतो रहुं छुं. आपके बारेमें समाजने रहुत सोचा, बहुत
उहापोह हुआ, परंतु अंतमें एक अवाजसे हम सबने स्वीकार किया किन्सत्य तो यही
हैजो महाराजा कहते हौ
महाराज! आप सम्यग्दर्शनका ही उपदेश देते हैां आपका यह उपदेश कितनेको
सम्यग्द्रष्टि आज बनायेंगे या कल सम्यग्द्रष्टि बननेमें ईससे सहायता मिलेगी! मेरी
भी यही चाह है कि कमसे कम गुरुदेवसे हमको सम्यग्दर्शन प्राप्त होा यही आपका बडा
उपकार हौ अरिहन्तदेवकी पूजामें भी हम यही रचना करते हैं, और आज स्वामीजीसे
भी मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मुझे भी सम्यग्दर्शन प्राप्त हो.
गुरुदेव प्रत्ये लागणीपूर्वक शाहूजीए कह्युं: महाराज! आपकी सामने बैठकर मैं
कोशीश करता हूं, परंतु अबतक मैं सम्यग्द्रष्टि नहीं बन शका. मैं आपसे यही बारबार
याचना करता हूं, और यही आपके सामने बैठकर सोचा करता हूं कि महाराजजी जो
कहते है ऐसा सम्यग्दर्शन मुझे कैसे प्राप्त हो.
आप लोगोंमेसे बहोतोंको सम्यग्दर्शन आया होगा! मुझे मालूम नहीं कितनेमें
आया? लेकिन जिनको आया–आपकी वाणीके प्रभावसे ही आया, और ईसी वाणीए
हम भी एक दिन सम्यग्द्रष्टि बना जायेंगे! आप हमें बराबर यह उपदेश वारंवार देते
रहे; क््योकि रस्सीके बारबार धिसनेसे एक पत्थर भी अंतमें धिस जाता है, तो आपके
उपदेशसे हम भी जरूर एक दिन सम्यग्दर्शन प्राप्त करेंगे! ऐसा नहीं करें तो हम उस
बछडेमेंसे भी जायगा. (छूटकाराना प्रसंगे वाछडाने पण उत्साह आवे छे ने तेने तारा
छूटकारनी वात संतो संभळावे ते सांभळता जो उल्लास न आवे तो तुं वाछडामांथी
जईश. ए वात प्रवचनमां आवेली, तेनो उल्लेख करीने शाहुजीए आ वात करी.)